Monday, April 27, 2009

महाराजा श्वेत

महाप्रतापी, महाबलशाली, महातपधरी, प्रतिभाशाली, तपोवन धम, महानगरी भोजकट-दरावर के प्रथम राज्य-संचालक महाराजा श्वेत, लोध्वंश कश्यप-गोत्रा के ज्वलन्त सूर्य थे। उनकी कीर्ति-गाथा को देवर्षि नारद-मुनि के मुखारविन्द से श्रवण करके स्वयं स्वर्ग-सम्राट अर्थात् देवराज इन्द्र के हृदय में भी ईष्र्या और द्वेष की ‘अग्नि’ धधक उठी थी। जिनकी सत्यनिष्ठा एवम् कर्तव्य-परायणता और दृढ़-संकल्प शक्ति को देखकर समूचा देव-समाज भी आश्चर्य-चकित था।ऐसे युग-पुरुष, महामानव, महाराजाधिराज महानगरी भोजकट-दरावर जनप्रिय, लोकपूज्य व सत्गुरु स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज के वंशाधिकारी एवं कुल-पूर्वज थे। परम-पूज्य महाराज श्वेत के चरण कमलों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम। उनकी प्रिय महानगरी भोजकट-दरावर के कण-कण की सहत्रा बार चरण-वन्दना जिसके बहुमूल्य गर्भ से ऐसे दानवीर, त्यागी, तपस्वी एवं सत्यवादी राजाओं ने बार-बार जन्म लेकर लोधवंश कश्यप-गोत्रा की कीर्ति-गाथा को अमृत्व प्रदान किया है।वैसे तो समस्त सृष्टि ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश की धरोहर है। सात लोक, चौदह भुवन और दसों दिशाओं में उस सर्व-शत्तिमान परम-पिता परमेश्वर की ही लीला व्याप्त है। स्वर्गलोक, मृत्युलोक, बैकुंठ, परम-धाम, आकाश, पाताल, नर्कलोक सभी अपने-अपने कर्मों के अनुसार ‘जीवात्मा’ को प्राप्त होते हैं, विशेषकर स्वर्गलोक जो कि मृत्युलोक तथा नर्कलोक के मध्य स्थित है। मृत्युलोक में मानव अपने कर्मों के अनुसार अपनी अग्रिम-योनि निर्धारित करता है। सत्य, धरम और न्याय का पालन करने वाला ‘मनुष्य’ जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर तथा लख-चैरासी के भंवर-जाल को तोड़कर ‘स्वर्ग’ का अधिकारी बनता है। इसके विपरीत पापी, अधर्मी तथा अत्याचारी घोर-नर्क का भागी होता है। मनुष्य, देव और दानव अर्थात् इन दोनों के बीच मानव-प्रवृत्ति वाला प्राणी है जिसमें सात्विक, तामसिक व राजसिक अर्थात् तीनों ही गुण विद्यमान होते हैं।एक दिन राजा श्वेत अपने राजसिंहासन पर विराजमान होकर अपने कर्मचारियों को गोपनीय सन्देश दे रहे थे कि ‘‘वे अपने राज्य में सत्य, अहिंसा एवं न्याय की स्थापना हेतु घोर-परिश्रम करें। इस कार्य के प्रचार व परिपालन हेतु यदि उन्हें अपने प्राणों की भी आहुति देनी पड़े तो इस बलिदान के लिए सभी को तत्पर रहना चाहिए। ये मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। मेरे राज्य में कोई भूखा, नंगा, पीड़ित अथवा असहाय नहीं रहना चाहिए।इस आदेश की परीक्षा के लिए मैं स्वयं अपना भेष बदलकर, दिन अथवा रात्रि में अपने राज्य का भ्रमण करुँगा। यदि मेरा कोई राज्य-कर्मचारी अपने कर्तव्य पालन में विमुख प्रमाणित हुआ तो मैं अपने राज्य से सपरिवार उसका निष्कासन कर दूँगा ताकि मेरे राज्य में ऐसा कोई कर्मचारी जन्म ही न ले जो प्रजा के साथ विश्वासघात करे। अन्याय और दुराचार को मेरे राज्य में कोई शरण नहीं मिलेगी। यही हमारा राज्यादेश है और हम इसका अक्षरशः पालन चाहते हैं।’’इस बीच एक द्वारपाल ने आकर महाराज श्वेत को सूचना दी कि एक महर्षि भगवे-वेश में आपसे भेंट करने की अभिलाषा से द्वार पर उपस्थित हैं। महर्षि का नाम सुनते ही राजा श्वेत नंगे-पैर द्वार की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने ऋषि-महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और उन्हें आदर-सहित राजमहल में राजसिंहासन पर विराजित किया। राजा श्वेत का इतना अधिक आदर-सत्कार देखकर, महर्षि हर्षोल्लास से फूले नहीं समाये और गद्गद् होकर कहने लगे, ‘हे राजन्! मैं तुम्हारी धर्मिक प्रवृत्ति और साधू-भक्ति भाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैंने इस राज्य की प्रजा में घोर सुख-शान्ति का अनुभव किया है। तेरी प्रजा, तेरी राज्य-प्रणाली और प्रशासन से बहुत सन्तुष्ट है। तेरा जीवन सफल है राजन्। अब मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ?..... तेरा कुलगुरु कौन है जिसने तुझे इतनी उँची शिक्षा दी है?’’ कुलगुरु...। चैंक पड़े राजा श्वेत। गहरे असमंजस में डूबकर महाराजा श्वेत बोले, ‘‘हे महर्षि! मेरा कोई ‘कुलगुरु’ नहीं है और फिर राज्य-कार्य संचालन के लिए किसी ‘कुलगुरु’ की क्या आवश्यकता है? मैंने तो आज तक इस विषय पर विचार भी नहीं किया और रहा उच्च-शिक्षा व सफल राजनीति का प्रश्न, सो ये सब तो महाराज मेरे पूर्वजन्म के संस्कारों की ही देन है। इस जन्म में जो कार्य होगा, उसका फल अगले जन्म में भोगना होगा। हमारे कुल-वंश की परम्परा इसी भाँति सत्मार्ग पर चलती रहती है। मैंने अपने पूर्वजों की परम्परा ही देखी है। मैंने और किसी चीज़ का ध्यान ही नहीं किया कि गुरु-शक्ति भी कुछ होती है।’’महर्षि क्षुब्ध् होकर बोले, ‘‘तेरी अंहकार-युक्त वाणी ने तेरे समस्त सत्कर्मों पर ही पानी फेर दिया। तू नहीं जानता कि ‘कुलगुरु’ की क्या महत्ता है? अरे मूर्ख! गुरु के परामर्श बिना तो राज्य अधूरा है। अतः तेरा उद्धार असम्भव है। अज्ञानता के गहन भंवर में फंसे हुए मानव को ‘गुरु’ ही अपनी शक्ति से पार लगाता है। गुरु के आशीर्वाद बिना तो भक्ति व शक्ति दोनों ही अर्थहीन हैं। आज तूने मेरे समक्ष ये कहा कि मैं ‘कुलगुरु’ की आवश्यकता ही नहीं समझता। जा! हम तुझे यह श्राप देते हैं कि तू अपने इस जीवन के सत्कर्मों के कारण स्वर्ग का भागी होकर भी गुरु-संसर्ग के लिए तड़पता रहेगा। गुरु-आशीर्वाद के अभाव में तेरा उद्धार ‘स्वर्ग’ में भी सम्भव नहीं है। याद करो राजन्! तुम्हें जो राजतिलक कराया गया था वो तुम्हारे ‘गुरु’ ने ही तो कराया था, तुम्हें तब भी यह ज्ञान नहीं हुआ। लगता है अंहकारवश माया के सींग जम आये हैं।’’ राजा श्वेत बोले, ‘‘महाराज! मुझे क्षमा करें।’’ जैसे ही महाराज श्वेत महर्षि के चरणों में क्षमा माँगने के लिए झुके, अचानक राजदरबार में क्षण भर के लिए सघन-कोहरा सा छा गया और जब प्रकाश हुआ तो देखा ‘महर्षि’ अन्तध्र्यान हो चुके थे।इस घटना के पश्चात् महाराज श्वेत के मन में स्वतः वैराग्य-भावना जागृत हो उठी। उन्हें राजपाट से घृणा उत्पन्न हो गयी। यहाँ तक कि समस्त सुख, सम्पत्ति और वैभव से परिपूर्ण महलों में उनका दम सा घुटने लगा। महर्षि की भविष्यवाणी उनके हृदय को कचोटने लगी तथा उनके मन-मस्तिष्क को झकझोरने लगी कि µ ‘‘स्वर्ग का भागी होने पर भी गुरु-सम्पर्क का तुझे अभाव तड़पाता रहेगा।’’ वे सोचने लगे कि हे परम-पिता परमेश्वर! मैं ऐसे किस आध्यात्मिक-दण्ड का भागी बनूँगा कि स्वर्ग प्राप्त होने पर भी मेरा उद्धार नहीं होगा। ये कैसा श्राप है भगवन्? यही सोच-सोचकर महाराजा श्वेत और महारानी धरम का मन विचलित हो उठा। अन्त में जब सब कुछ सहन शक्ति से परे हो गया तो तत्काल राजा ने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि हम आज ही सूर्य छिपने से पहले, अपने पुत्रा ‘कुंवर धर्म धुरेन्द्र’ का राजतिलक करना चाहते हैं। शुभ घड़ी व तिथि-मुहूर्त में कुंवर धरम धुरेन्द्र का राजतिलक करके महाराजा श्वेत तपस्या करने हेतु जंगलों में प्रस्थान कर गये।अब कन्दमूल फल ही उनका आहार था। तत्पश्चात् वे घोर तपस्या में इतने लीन हुए कि निराहारी रहकर वे अपनी साध्ना में संलग्न रहने लगे। अन्त में जब उन्होंने अपना शरीर त्याग तो उन्हें लेने के लिए भगवान का विमान पहुँचा। विमान उनको लेकर स्वर्ग चला गया। स्वर्ग में जाकर उनको बहुत सुन्दर महल रहने को मिले, अनेक दास-दासियां सेवा को मिलीं तथा पहनने के लिए रत्न-जड़ित वस्त्रा प्राप्त हुए। अनेकों अप्सराएँ उन्हें पत्नी के रूप में भोगने को मिलीं परन्तु खाने को कुछ नहीं मिला। अतः ‘राजा श्वेत’ क्षुध से पीड़ित होकर चिल्लाये कि मुझे भोजन दो! मेरा सब कुछ ले लो। दास-दासियों ने कहा, ‘‘महाराज! महलों में आपके लिए सभी सुख उपलब्ध हैं परन्तु ‘भोजन’ के नाम पर तो एक फल भी उपलब्ध नहीं है।’’ राजा श्वेत भूख से तड़पते-बिलखते, भगवान विष्णु व ब्रह्मा आदि के पास गये उनसे भोजन की याचना की। उन्हें उत्तर मिला कि, ‘‘राजन! तुमने जो दान किया है वह तुम्हारे स्वर्ग आने से पूर्व ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो चुका है। जो दान नहीं किया, वह कहाँ से आए?’’ राजा श्वेत हाथ जोड़कर दीनवाणी में बोले, ‘‘हे प्रभु! हे जगदीश्वर! ये सब सुख ले लो और मुझे भोजन दे दो।’’ इस पर भगवान-विष्णु बोले, ‘ये नियम के विरुद्ध है। राजन्! जो कुछ दान दिया जाता है वही आगे चलकर मिलता है। तुमने कभी किसी जीवन को भोजन-दान नहीं किया, कभी किसी कुत्ते तक को रोटी का टुकड़ा नहीं डाला। केवल अपने शरीर को सुन्दर-सुन्दर राजसी वस्त्रों से सजाया, सँवारा व स्वादिष्ट-भोजन व मेवा-मिष्ठानों से पाला पोसा। अतः अब तो ये ही हो सकता है कि तुम्हारा मृतक-शरीर जो कि आज भी उसी वन में तालाब के किनारे पड़ा है, उसी को आप जाकर खा लो और अपनी भूख-पिपासा शान्त करके फिर स्वर्ग में वापिस आकर अपने दान किये हुए भोगों को यथावत् भोगते रहो।’’ राजा श्वेत बहुत दुःखी हुए। लेकिन कर भी क्या सकते थे? महाशक्ति के नियमों का पालन तो करना ही था।अब ‘राजा’ विमान द्वारा प्रतिदिन पृथ्वी पर आते तथा अपने मृतक-शरीर को काट-काटकर खाते और फिर स्वर्ग को वापिस लौट जाते। इस प्रकार यह उनका दैनिक कार्यक्रम बन गया था। अतः राजा श्वेत ने दुःखी होकर एक दिन ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि ‘‘हे भगवन् मेरा यह मृतक-शरीर एक न एक दिन तो समाप्त हो ही जायेगा। तदोपरान्त मेरे लिए भोजन की क्या व्यवस्था होगी?ब्रह्मा जी ने कहा, ‘‘राजन्! तुम्हारा वह शरीर कभी भी समाप्त नहीं होगा। वह अक्षय है और अविनाशी है। तुम्हारे सद्कर्म और भक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण वह कभी खराब भी नहीं होगा। अतः तुम निश्चिन्त होकर वहाँ जाकर नित्य-प्रतिदिन अपना पेट भर लिया करो।’’विवश राजन अपना पेट किसी तरह तो भरता ही था किन्तु अत्यन्त दुःखी था। सोचता था कि इस पाप-कर्म से मेरी कब और कैसे मुक्ति होगी? एक दिन वह इसी असमंजस में डूबते-उतरते नारद जी के पास पहुँचे और अपनी समस्त मनोव्यथा कह सुनाई तथा अपने उद्धार का उपाय भी पूछा। नारद जी बोले, ‘‘हे राजा श्वेत! प्रत्येक आध्यात्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दण्ड का ‘अन्त’ तो अवश्य हुआ ही करता है। किन्तु मुहूर्त महाबलशाली है। जब दण्ड भोगते-भोगते किसी पाप या अपराध् का अन्त हो जाता है तभी उसकी मुक्ति का मुहूर्त उदय हो जाता है। हे राजा श्वेत! तुमको अपना शरीर खोते हुए देखकर जब अगस्त्य मुनि जी की दृष्टि तुम पर पड़ जाएगी और तुम उनके दर्शन कर लोगे, तभी तुम अपने को कृतार्थ व मुक्त समझ लेना क्योंकि अगस्त्य मुनि जी महान शक्तिशाली और योगेश्वरों के भी योगेश्वर हैं।’’कालान्तर के पश्चात् एक दिन देवयोग से अगस्त्य मुनि जी विचरण करते हुए उसी वन-स्थली में आ पहुँचे। वहाँ पर तालाब के किनारे मुनिवर ने एक अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति का ‘शव’ पड़ा हुआ देखा। कुछ देर विचार कर मुनिदेव सोच ही रह थे कि कौन इस जंगल में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर गया? इतने में ही उन्होंने देखा कि एक विमान ‘स्वर्ग’ से उतरा और उसमें से एक सुन्दर युवक अनेक रूपवती अप्सराओं के साथ आया। युवक, विमान से उतरकर उस मृतक-शरीर को खाने लगा। अप्सराएँ खड़ी-खड़ी यह कृत देखती रहीं। जब वह युवक मृत-शरीर का भक्षण करने के बाद विमान पर चढ़ने के लिए चला, तो मुनिवर ने उसके चेहरे को देखकर पहचान लिया। अगस्त्य मुनि जी उच्च-स्वर में पुकार कर बोले, ‘‘अरे श्वेत! तुम ऐसा घृणित-कार्य किस प्रयोजन हेतु करते हो? यह महापाप भोगने का फल तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ? अरे राजन्! तू तो राजा अशोक का वंशज है, जिसने इस भूपटल पर कभी एकछत्र राज्य किया था। अतीत के उस लोह-कुल का नाम आज भी भूमण्डल पर विकृत रूप में लोध-वंश नाम से प्रसिद्ध है।’’ इतना सुनते ही राजा श्वेत करबद्ध होकर अगस्त्य मुनि जी के चरणों में गिर पड़े। राजा बिलख-बिलखकर रोने लगे। करुणानिधन अगस्त्य मुनि जी को राजा श्वेत पर दया आयी। उन्होंने राजा को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। राजा अत्यन्त व्यथित होकर बोले, ‘‘हे नाथ! आज मेरा उद्धार हो गया है। जिन पापों को मैं बहुत दिनों से भोग रहा था, वे आज समाप्त हो गये हैं।’’ अगस्त्य मुनि जी ने कहा, ‘‘जाओ राजन्! तुम आज से स्वर्ग में आनन्द करो। अब तक तुमने किसी देवर्षि का श्राप भोगा, अब एक मुनि का आशीर्वाद भोगना। तुम्हें भूख-प्यास कुछ भी नहीं सतायेगी।राजा श्वेत, मुनि अगस्त्य जी के दर्शन कर ‘कृतार्थ’ हो गये। उनके मन में एक अलौकिक व आध्यात्मिक शक्ति का उदय हुआ। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। मारे खुशी के इतनी वैराग्य-भावना उमड़ी कि राजा श्वेत से रुका न गया। अब वह क्षत्रिय-वंशज होने के कारण विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन सी अमूल्य-धरोहर है जिसे मैं गुरु-चरणों में अर्पित कर दूँ। अन्त में उनका ध्यान अपनी उस अमूल्य-दिव्यमणि की ओर गया जिसे कभी देवराज इन्द्र ने राजा श्वेत को प्रसन्न होकर भेंट की थी। राजा श्वेत ने उसी दिव्यमणि को तुरन्त अगस्त्य मुनि जी को अर्पण कर दिया और उनके चरण स्पर्श करके विदा ली। तत्पश्चात् राजा श्वेत ने अगस्त्य मुनि जी को ही अपना पूज्य-गुरु चुन लिया।

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