Saturday, May 23, 2009

महाराजा सर्वेश तीर्थ

महाराजा सर्वांग सुन्दर के वन प्रस्थान कर जाने बाद उनके सुत राजा सर्वेश तीर्थ ने राज्य की बागडोर को बड़े धर्यपूर्वक संभाला। इनके राज्य में प्रजा अत्यन्त सुखी और प्रेम-भाव से जीवन व्यतीत करती थी। महाराजा सर्वेश तीर्थ और इनकी महारानी कामिनी तीर्थ गुरु ध्यान में संलग्न रहते थे। ऐसी कुल-परम्परा महान विभूतियों में ही मिलती है। गुरु व ऋषि लोगों के संस्कार भी ऐसी ही आत्माओं के साथ जुड़े रहते हैं। नमो नारायण।
इसी प्रकार गुरु-वचनों पर राजा व रानी दृढ़ रहने लगे। कुछ समय के उपरान्त इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम ‘कर्ण कीर्तिय’ रखा गया। राजा व रानी ने अपने सुत ‘कर्ण कीर्तिय’ का लालन-पालन बड़े ही अच्छे ढंग से किया। कुछ समय राज्य करने के उपरान्त राजा व रानी को वैराग्य उत्पन्‍न हुआ और वैराग्य की आग हृदय पर धधकने लगी। राजा व रानी सोचने लगे कि अखंड तपस्या का फल तो वन में ही होता है और गुरु-वाक्य भी पूरा हो चुका है। इसी सोच विचार में पर्याप्त समय निकल गया। सोचने लगे कि यहाँ रहने पर हमारा राज्य से मोह बना ही रहेगा। महान ‘पद’ तो विरक्‍त होने पर ही प्राप्त होता है। राज्य में शान्ति न मिलने के कारण ही तो हमारे पूर्वज इस राज्य को छोड़कर वनखंडों में चले गये थे। अत: गुरुदेव बालखिल्ले जी को राजदरबार में सादर आमंत्रिात किया गया। राजा व रानी ने गुरुदेव को साष्टाँग प्रणाम किया, चरण धोकर चरणामृत लिया और बोले, हे त्रिकालदर्शी गुरुदेव! आप भी तो कभी राजा ही थे। शान्ति ना मिलने के कारण ही तो आपने राज्य को त्यागा है। बताइये राज्य करके क्या आज तक कोई सुख व शान्ति से रहा है? राजा व रानी दोनों गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। वैराग्य अपनी चरम सीमा को स्पर्श कर गया। आँखों से अश्रुधरा बहने लगी और दोनों बिलख-बिलखकर रोने लगे। बोले, ‘गुरुदेव! हमारी नाव के खिवैया तो आप ही हैं। अत: अब हमें सन्यास दे दीजिये तथा इस राज्य को कुंवर कर्ण कीर्तिय को सौंप दीजिये।’’
यह दृश्य देखकर त्रिकालदर्शी गुरु बालखिल्ले जी भी स्तब्ध् रह गये। गुरुदेव बोले, हे राजन~! वेदानुसार चौथापन तेरा सन्यास में चला गया। तुम जैसे भाग्यशाली कोई विरले ही होते हैं। अब गुरु बालखिल्ले जी ने राजा सर्वेश तीर्थ के सुत कर्ण कीर्तिय को बुलवाया तथा राजसिंहासन पर उसका राजतिलक कर दिया। महाराजा सर्वेश तीर्थ और महारानी कामिनी तीर्थ को विधि‍ विधान पूर्वक सन्यास दे दिया गया। मुनिवर बोले, हे कश्यप-गोत्र राजपूत कुल के राजेश! धन्य है तुम्हारी पूर्वज परम्पराओं को। इसके सामने मैं भी चक्कर खाता हूँ क्योंकि तुम्हारी वाणी में सत है। जो वाणी से कह दिया वह अटल है।
देखो राजन! महाभारत में अर्जुन ने भी प्रतिज्ञा की थी कि मैं आज सूर्यास्त से पूर्व ही ‘जयद्रथ’ को मार डालूँगा अन्यथा स्वयं जलकर मर जाउँगा। उस दिन कृष्ण जी ने अपनी योगमाया से सूर्य को समय से पूर्व ही अस्त कर दिया लेकिन फि‍र अर्जुन की दृढ़-प्रतिज्ञा को देखकर सूर्य को पुन: चमका दिया। सूर्य को देखते ही अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया। ऐसी ही प्रतिज्ञा द्रोपदी ने भी की थी कि जब तक दु:शासन के खून से मैं अपने सिर के बाल न भिगोउँगी तब तक सिर नहीं बाँधूगी। उसी कुरुक्षेत्र युद्ध में बारह वर्ष के बाद द्रोपदी ने दु:शासन के खून में भिगोकर अपने सिर के बाल बाँधे थे। अत: कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर कहाँ रहता है? ईश्वर प्रतिज्ञा में रहता है। जहाँ प्रतिज्ञा नहीं, वहाँ ईश्वर नहीं।

Friday, May 22, 2009

महाराजा जालन्धर

जन्म-जन्म के तपों का, उदय होता जब भान।
राजपाट को तजवाकर, गुरु करावें ज्ञान।।
योग गुरु से सीखकर, कुंडली लहें जगाय।
नभ-मंडल को चीर कर, समाधि‍ लहें चढ़ाय।।
वेद-शास्‍त्र अरु पुराणों में, भरा है अदृभुत ज्ञान।
प्रकांड पंडित तक फंस गये, रहे मूढ़ अज्ञान।।
पूर्वकाल में जालन्धर नाम के राजा कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर राजधानी में राज्य करते थे। उनका जन्म कश्यप-गोत्र के लोध-राजपूत कुल में हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही बड़े धर्मशील व न्यायप्रिय राजा थे। उनकी महारानी का नाम श्रीमती प्राणेश्वरी था। राजा और रानी दोनों ही बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराते थे तथा गरीबों की सहायता करते थे व तीर्थो की यात्रा करते थे। अनेक गरीबों की कन्याओं के शुभ-विवाह इन्होंने कराये थे। कहा जाता है कि महापुरुषों के यहाँ महापुरुष ही जन्म लेते हैं। एक दिन अचानक राजा जालन्धर का माथा, दायीं भुजा और दायीं आँख फड़कने लगी। राजा कुछ सहमे से बैठ गये। यह लक्षण उनके पूर्वकाल की तपस्या के उदय होने का सूचक था। राजमहल में बैठे राजा कुछ सोच ही रहे थे कि रानी ने आकर उनके चरणों में सिर झुकाया और कहने लगीं कि हे प्राणनाथ! आज क्या सोच-विचार कर रहे हो? राजा ने कहा, अहोकष्ट! महाकष्ट! राजपाट और मायामोह के जाल में फँसकर मैंने अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर डाला। हे रानी! मैं राजपाट को न साथ न लाया था और न ही वैभवशाली द्रव्यों को साथ ले जाऊंगा। कितने ही राजे-महाराजे इसको अपना-अपना कहकर चले गये। ये सभी तो इस नश्वर संसार की धरोहर हैं। राजा के ऐसे विचार सुनकर प्राणेश्वरी को भी कुछ भ्रम सा हो गया और वे भी शान्त-भाव से सोचने लगीं कि अहोभाग्य हैं हमारे जो राजा के मन में इस संसार के वैभवशाली द्रव्यों के प्रति घृणा उत्पन्‍न हुई है। अब हमारे पूर्वकाल के संस्कारों का फल उदय होने वाला है। यह सोचने में कुछ ही समय बीता था कि उनके महल में कुल-गुरु श्री श्री 108 श्री बालखिल्ले जी का आगमन हुआ। द्वारपाल ने गुरु महाराज के आने का सन्देश राजा को पहुँचाया। सन्देश सुनते ही राजा व रानी दोनों दौड़े चले आए और गुरुदेव को सादर साष्टाँग प्रणाम किया। उनके चरण धोकर चरणामृत लिया और भोजन आदि से तृप्त कराके उन्हें राजसिंहासन पर विराजमान कर दिया । यह दृश्य ठीक उसी प्रकार दृष्टिगोचर हो रहा था जैसे कि राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में विश्वामित्र जी आ गये हों।
कुछ समय उपरान्त गुरु महाराज ने चारों तरफ निहारकर कहा, हे राजन~! मुझे दृढ़ शंका के साथ यह कहना पड़ रहा है कि तुम्हारे राज्य में आज कुछ अशान्ति है। ऐसा क्यों? स्पष्ट कीजिए?
गुरुदेव के ऐसे शंका भरे शब्दों को सुनकर राजा करबद्ध होकर कहने लगे, हे महायोगेश्वर जी! मैंने देश-देशान्तरों की यात्रा की है, यज्ञ, अनुष्ठान भी कराये हैं, गरीबों की कन्याओं के विवाह-संस्कार भी किये हैं, आपके नाम का सदैव ‘जाप’ भी करता हूँ किन्तु फि‍र भी मेरा मन अशान्त है।
गुरु उवाच, हे राजन~! इस प्रकार के करमो से मानसिक शान्ति नहीं मिलती। वह तो तपस्या व त्याग से ही मिलती है। राजन बोले, हे पूज्य गुरुदेव! मेरा मन इस सारे राज्य को त्यागकर ‘तपस्वी’ बनना चाहता है। अत: कृपा करके मुझे वह मार्ग दर्शा दीजिए जिससे मुझे मानसिक शान्ति प्राप्त हो जाये। राजा के ऐसे भक्‍ति‍ भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी उनके ललाट पर देखने लगे। क्षणोपरान्त गुरुदेव कहने लगे, हे नरश्रेष्ठ! तेरी पूर्वजन्म की तपस्या का उद्यान अब खिलने लगा है। इस तरह का वैराग्य होना तो बड़े भाग्य की बात है। तेरे ललाट को देखकर मैं यह जान गया हूँ कि अब तुझे कोई भी शक्‍ति‍ वनखंडों में जाने से नहीं रोक सकती क्योंकि जब पूर्वजन्म की तपस्या अपने संस्कारों को उदय करती है तो भूमण्डल की सारी शत्तियां सिमटकर चरणों में आ जाती हैं अन्यथा कौन इस वैभवशाली संसार को त्यागने के लिए तैयार है? जो जहाँ पर बँध पड़ा है वहीं पर इस माया ने उसे जकड़ लिया है। हे राजन~! आज तेरे पुण्य कर्म उदय हो रहे हैं। तेरे हाथ में जो योग की रेखा पड़ी है ये उसी का प्रभाव है। इस कौतुक को देखकर महारानी प्राणेश्वरी से न रुका गया और योग की इस अग्नि से व्यावुफल होकर महारानी ने भी अपना मस्तक गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। यह रानी के पतिव्रता होने का प्रमाण था। महारानी कहने लगी कि आप जैसे महायोगेश्वर गुरु हमारे सन्मुख खड़े हैं जो मुत्ति-धर्म के दाता तथा महान शत्तिशाली हैं। ऐसा अवसर हमें कब और कहाँ मिल सकता है? हमारी आकांक्षा इस राजपाट व वैभव से तृप्त हो चुकी है। हे गुरुदेव! यह तो एक दिन मरते समय भी छोड़ना पडेगा। यदि यह सब आपके चरणों में अभी छूट जाये तो इससे अच्छा अवसर और क्या होगा?
राजा और रानी के भत्ति भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी ने सिपाहियों को बुलवाया और समस्त राज्य में ये घोषणा करा दी गयी कि आज से राजा राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे। वह आज से सन्यासी कहलाएँगे तथा वनखंडों में तपस्या हेतु चले जाएँगे। सूचना पाते ही सब देशवासी दौड़ पड़े और खाने-पीने का प्रबन्ध होने लगा।
राजा के पुत्रा ‘सर्वांग सुन्दर’ को भी वहाँ बुलवाया गया। गुरु बालखिल्ले जी ने विधि-विधन पूर्वक राज्य का तिलक कुंवर सर्वांग सुन्दर को कर दिया। राजा व रानी ने बहुत सा धन दान किया और गुरु जी की आज्ञानुसार भगवे वस्त्र पहनकर वनखंडों को प्रस्थान कर दिया। चलते समय गुरुदेव ने कहा कि तुम्हारा जन्म सूर्यवंश के कश्यप-गोत्र में हुआ है अत: तुम्हें अधि‍क उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है।
जब गुरुदेव ने सर्वांग सुन्दर को राजसिंहासन पर बैठाया तो राजकुमार की आँखों से अश्रु-धरा प्रवाहित होने लगी। वायु ने इस समय अपना वेग छोड़ दिया और शान्ति स्थापित की। गंगा ने अपनी अठखेलियों से उछलते जल को अपनी गोद में समेट लिया। पेड़-पौधे जड़वत हो गए। देवगण आकाश से पुष्पों की वर्षा करने लगे। गुरुदेव, राजकुमार को यों समझाने लगे कि हे राजकुमार! घबराता क्यों है? तेरा राज्य तो हम गुरु-लोगों के आधार पर ही चलेगा। तुम जैसे लोगों के सहारे तो ‘धर्म’ पृथ्वी पर टिका है।आज सारी प्रजा की आत्माओं का आशीर्वाद राजा और रानी के साथ लग गया था। इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि स्वयं ‘राम’ वन को जा रहे हैं। सभी अपनी मूकवाणी से कह रहे थे कि तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो और गुरु लोगों की परम्परा का झंडा इस लोक में और परलोक में लहराता रहे। यह धर्म और मर्यादा दोनों की परीक्षा थी। इसी बीच कुलगुरु बालखिल्ले जी अपनी योग-माया से अन्तर्ध्‍यान हो गए और राजकार्य यथोचित प्रकार से चलने लगा। राजन के वनोवास जाने की सूचना पाते ही जन-समूह में हलचल मच गयी। सबके चित्त पर ज्ञान वैराग्य की आग धधकने लगी कि विधता ने भाग्य में क्या लिखा है, कुछ पता नहीं। आज ‘राजा’ वन को जा रहे हैं, राज्य तथा राजकुमार का कोई मोह नहीं किया जैसे सर्प काँचली को त्यागकर चल देता है। राजन के त्याग वैराग्य को देखकर सभी नगरवासियों में खलबली मच गयी। जो भी जिसके हाथ में आया उसने वही दान किया। कोई पैसे बिखेर रहा था, कोई अन्‍न-दान कर रहा था, कोई वस्‍त्र दान कर रहा था। यह दशा जनता की हो गयी थी।

महाराजा सत्यदेव

महाराजा धर्म धुरेन्‍द्र के वन-प्रस्थान कर जाने के उपरान्त उनके पुत्र महाराजा सत्यदेव ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में सँभाली और धर्म का राज्य करने लगे। इनका कर्तव्‍य गुरु-लोगों की सेवा करना, ऋषि-मुनियों को प्रतिदिन भोजन कराना और नित्य-प्रतिदिन नंगे पैर ‘‘गंगा’ नहाने जाना था। जिस दिन इनके दरबार में किसी महर्षि का पदार्पण नहीं होता था तो ये बहुत चिन्तित होते थे और स्वयं भी भोजन नहीं करते थे। कुछ दिन राज्य करने के उपरान्त महाराजा सत्यदेव और उनकी महारानी ‘प्रभात’ को राजसिंहासन की ओर से घृणा होने लगी और उनकी आँखों से अश्रु-धरा बहने लगी। उसी समय परम-पूज्य महायोगेश्वर अगस्त्य मुनि जी का राजदरबार में पदार्पण हुआ। महाराजा सत्यदेव और महारानी प्रभात, योगीराज के चरणों में गिर पड़े। सादर साष्टाँग प्रणाम किया और चरण धोकर चरणामृत लिया तथा योगेश्वर जी को भोजन आदि से तृप्त कराया। तत्पश्चात~ योगीराज जी ने महाराजा सत्यदेव से कहा, बेटा! ‘‘घबराते क्यों हो, इस राजसिंहासन की बागडोर तो मेरे हाथ में है। यह तो बड़े-बड़े सत्यवादी राजाओं की प्राचीन राजधानी रही है। मैं तुम्हें इसका एक वृतान्त सुनाता हूँ।
हे राजन~! प्राचीन काल में यहाँ से लगभग पन्द्रह मील दूर अनूपशहर में चकवेबैन नाम के एक अत्यन्त शत्तिशाली व धर्म-परायण राजा हुए हैं। उसी काल में लंका नगरी में राजा ‘रावण’ का राज्य था। रावण को जब ये अभिमान हुआ कि उसने देश-देशान्तरों के समस्त राजाओं को जीत लिया है तो यह सुनकर उनकी पत्नी रानी-मन्दोदरी ने कहा कि ‘‘महाराज! वर्तमान में जो सबसे शत्तिशाली राजा है उनके पास तो आप अभी तक पहुँचे भी नहीं हैं।’’ रावण बोला, वो कौन सा राजा है? मुझे तुरन्त बताओ, मैं उसे अभी पराजित करूँगा। रानी कहने लगी, महाराज! गंगातट पर अनूपशहर नामक एक नगर है। जहाँ चकवेबैन नाम का एक राजा राज्य करता है। रावण बोला, उसमें क्या शक्‍ति‍ है? रानी मन्दोदरी बोली, महाराज! क्या आप उनकी शक्‍ति‍ यही से देखना चाहते हैं? यदि आपकी ऐसी इच्छा है तो देखिए। मन्दोदरी ने मुटठी-भर अनाज के दाने ‘कबूतरों’ के सामने बिखेर दिये और कहा कि तुम्हें राजा चकवेबैन की दुहाई है यदि तुमने एक भी अनाज का दाना चुगा। सारे कबूतर देखते रहे लेकिन किसी ने एक दाना तक भी नहीं चुगा। रानी मन्दोदरी ने अनाज की फि‍र दूसरी मुटठी बिखेरी और कहा कि तुम्हें राजा रावण की दुहाई है यदि तुमने एक भी दाना चुगा। लेकिन कबूतर तुरन्त ही सारे अनाज को चुग गए। अब रावण ने अपना मंत्री राजा चकवेबैन के यहाँ युद्ध के लिए भेजा और कहा कि चकवेबैन युद्ध के लिए तुरन्त तैयार हो जाए। राजा चकवेबैन ने रावण के मंत्री से कहा कि रावण हमसे क्या युद्ध करेगा? उस समय राजा चकवेबैन पंखा बुन रहे थे। राजा चकवेबैन ने लंका के समान, बालू की एक बुर्जी बनाई और पंखे की डंडी से उसे गिरा दिया और रावण के मंत्री से कह दिया कि जब रावण इस बुर्जी को पूरा कर ले तभी वह मेरे पास युद्ध के लिए आ जाये। रावण के मंत्री ने लंका में जाकर देखा कि वास्तव में लंका की बुर्जी टूटी पड़ी थी। अब रावण प्रतिदिन उस बुर्जी को चिनवाता था लेकिन वह प्रतिदिन ही गिर जाती थी। रावण ने बहुत कोशिश की लेकिन वह बुर्जी पूरी न हो सकी। अन्ततोगत्वा रावण हार मानकर अनूपशहर के राजा चकवेबैन के पास पहुँचा और अपनी भूल स्वीकार की तथा क्षमा-याचना की। तब राजा चकवेबैन ने बालूरेत की एक बुर्जी बनाई और कहा कि रावण! तुम्हारी बुर्जी बन चुकी है। रावण ने राजा चकवेबैन को प्रणाम किया तथा लंका लौटने की आज्ञा मांगी। रावण ने लंका में आकर देखा तो बुर्जी बनी खड़ी थी।
अब अगस्त्य मुनि राजा सत्यदेव से बोले कि बेटा! तू घबराता क्यों है? राजपाट को हम सँभालेंगे। तुझे तो हमने नाम-मात्र को ही राजसिंहासन पर बैठाया है और बेटा! गहस्थ आश्रम में रहते हुए भी ‘मनुष्य’ महान सन्त हो सकता है। कुछ समय पश्चात महाराजा सत्यदेव को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम इन्होंने ‘जालन्धर’ रखा। महाराजा सत्यदेव को कुछ समय राज्य करने के उपरान्त राज्य से घृणा उत्पन्‍न होने लगी। सोचेने लगे कि यह संसार तो नश्वर है। इसमें कोई भी वस्तु स्थाई नहीं है। यह तो आवागमन का एक चक्र है। हमारे कितने ही पूर्वज इस पृथ्वी पर जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त हुए हैं लेकिन कोई भी अपने साथ ना कुछ लाया और ना ही ले गया। अत: उनका मन तपस्या की ओर अग्रसित होने लगा। उन्होंने अपने कुलगुरु अगस्त्य मुनि जी को अपनी मनोस्थिति बतलायी। योगीराज ठगे से रह गये और बोले, बेटा! ये तेरी पूर्वकाल की तपस्या उदय हो रही है। अब राजा सत्यदेव ने गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपने राजसिंहासन का तिलक, गुरु महाराज के समक्ष अपने सुत ‘जालन्धर’ को कर दिया और महाराजा सत्यदेव और महारानी प्रभात, तपस्या करने हेतु वनों के लिए प्रस्थान कर गये।

Thursday, May 21, 2009

महाराजा धर्म धुरेन्द्र

लोधवंश कश्यप-गोत्र के अध्ष्ठिाता एवं एकछत्र महाराजा धर्म धुरेन्द्र, राजधनी भोजकट दरावर के सम्राट थे। उनके राज्य में चतुर्दिक शान्ति व्याप्त थी। वे अपनी प्रजा का सन्तानवत् पालन करते थे। धन, वस्त्र, द्रव्य, भवन व गऊ आदि दान करते थे। उन्होंने अनेक अविवाहित निर्धन कन्याओं का कन्यादान करके अपनी निर्धन-प्रजा को प्रोत्साहन प्रदान किया था। राजा की प्रवृत्ति अत्यधि‍क ‘धार्मिक’ थी।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र ‘धर्म’ का राज्य करते थे। उनके राज्य में समस्त जनता महासुख की भागी थी। राजा को प्रजा ईश्वर-तुल्य मानती थी क्योंकि वो गरीबों की देख-रेख में बड़े चतुर तथा सत्य-प्रतिज्ञावान थे। जनता उनको ईश्वर करके पूजती थी। परन्तु राजा ‘सन्तान’ के अभाव में अशान्त रहते थे। उनकी पत्नी ‘माया सुन्दरी’ एक पतिव्रता रानी थी। वह राजन को प्राणों से भी प्यारी थी। ऋषि-मुनियों की सेवा में वह सदा तत्पर रहती थी।
सन्तान के अभाव में राजा व रानी, ऋषियों के दर्शन हेतु भ्रमण करने लगे। घूमते-घूमते वे एक योगेश्वर जी के आश्रम में पहुंच गए। योगी जी के आश्रम को देखकर राजन आश्चर्यचकित रह गये। ‘योगी’ के ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और त्याग की अथाह शक्ति देखकर, राजन को कुछ भक्ति-रस का नशा सा छा गया। राजा व रानी ने फल-फूल भेंटकर योगेश्वर जी को प्रणाम किया तथा शान्त-चित्त खड़े रहे। योगीराज ने उनकी तरफ देखा तो उनकी श्रद़धा व भक्ति देखकर उन्हें बैठने का संकेत किया और कहने लगे, कहिए राजन्! कहाँ से आगमन हो रहा है? राजा करबद होकर बोले, ‘‘हे योगेश्वर जी! मैं आपका नाम सुनकर आपकी चरण-रज में उपस्थित हुआ हूँ। हम भोजकट दरावर कुन्दनपुरी राजधनी के रहने वाले हैं। धर्म धुरेन्द्र मेरा नाम है तथा रानी का नाम माया सुन्दरी है।’’ मुनिवर बोले, ‘‘राजन्! आप कुछ अशान्त से प्रतीत होते हो।’’ राजा कहने लगे, ‘‘ऋषिराज! अशान्ति का तो ऐसा कोई कारण नहीं है परन्तु हमारे राज्य की बागडोर हमारे बाद कौन सँभालेगा? ना जाने वह कैसा राजा होगा? क्योंकि महाराज! हमारे कोई राजकुमार नहीं है।’’ योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे नरेश! तुम्हारे साथ में तो ऋषि-मुनियों का आशीर्वाद लगा हुआ है। राजन्! तेरा तो उच्च-कुल है। इसमें बड़े-बड़े योगियों व धर्मात्माओं का जन्म हुआ है। हे राजन्! धर्मात्मा होने के नाते, मैं अब तुम्हें समझाता हूँ। यदि मेरे मार्गदर्शन के अनुसार तुमने साधन नहीं किए तो देख लेना तुम्हारे यहाँ असत्यवादी बच्चा होगा।’’
‘‘देखो राजन्! स्यालकोट में राजा सिंहवटी ने गुरु गोरखनाथ सहित उनके चौदह सौ चेलों को संगीनों के पहरे में अपने बाग में रखकर, चौबीस वर्ष तक उनकी सेवा की, तब कहीं जाकर ‘पूरनमल’ जैसा सती व यती पुत्र, रानी के गर्भ से पैदा हुआ जो अपना व अपने कुल का नाम आकाश में लहरा गया तथा सदा के लिए मोक्षपद को प्राप्त हो गया।’’ इतना सुनकर राजा व रानी ने रोते हुए अपने मुकुट, योगी जी के चरणों में रख दिए।
राजवंश को देखकर, राजा हो भ्रमन्त।
सोचा मरने के बाद, कौन करे राजन्त।।
ये बातें सोचकर, जायें ऋषियों के पास।
पूर्वजन्म के तपों से, गुरु-शरण मिल जात।।
राजपाट अर्पित किया, रघुकुल अपनी रीत।
करबद्ध हो सम्मुख खड़े, तपने चले प्रीत।।
वचन सुनत राजेश के, मुग्ध् हुए ऋषिराज।
राज चले कुल-वंश से, ये निश्चय कर साज।।
तत्पश्चात् योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे राजन्! तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति ने तो मेरे शासन को भी हिला दिया। अब तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
‘‘हे नरेश! तुमको और रानी को तीन वर्ष तक पृथ्वी-तल पर सोना होगा। कन्दमूल फल का खाना होगा। राजवंश का त्याग करना होगा। परिश्रम से अर्जित ‘अन्‍न’ ग्रहण करना होगा। पैरों तथा अँगूठे के बल, तपस्या करनी होगी। ब्रह्मचर्य से रहना होगा। नित्य प्रति गंगा-स्नान करना होगा। हे राजन्! तुम्हारी तपस्या जब पूर्ण होती जायेगी तो भक्ति में शक्ति बढ़ती जायेगी। जब तपस्या की सीढ़ियाँ निकट आती जायेंगी तो जो सर्वशक्तिमान् ‘ईश्वर’ है उसका सिंहासन हिलने लगेगा। तभी समझ लेना कि तुम्हारी तपस्या ‘पूर्ण’ हो चुकी है।
‘‘हे राजन्! अनूपशहर से लेकर पूठपुरी-पुष्पावती तक के वीरान वनखंडों में गुप्त-रूप से कालगुँजार योगी विचरते हैं। किसी भाग्यशाली को ही उनके दर्शन होते हैं। यह क्रम, सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। जब किसी को उनके दर्शन होते हैं तो बड़े भाग्य व भयानक रूप से होते हैं। देखो! अतीत में अनूपशहर में सत्यवादी राजा चकवेबैन हुए हैं। कुन्दनपुरी में सीता-अवतार रुक्मणी हुई हैं तथा पूठपुरी-पुष्पावती में अटल प्रतिज्ञावान ध्र्रुव-भक्‍त का जन्म हुआ है। वैसे तो योगीजन हर जगह घूमते रहे हैं जहाँ इनका मन चाहता है, परन्तु अधि‍कतर उपरोक्त कहे गए क्षेत्र में ही विचरते हैं। इन कालगुँजार योगियों के दर्शन, गंगा से निकलते हुए अथवा अपनी आँतों को धेते हुए या किसी सिंह की हड्डियाँ चाटते हुए या मृत-पशुओं को खाते हुए होते हैं। ये मैं तुम्हें उनकी शक्ति समझा रहा हूँ। कभी बालक के रूप में स्नान करते हुए मिलते हैं। यदि वे तुम्हें प्रसाद दे दें तो समझ लेना कि तुम ‘पुत्रेश-यज्ञ’ के अधि‍कारी हो गये हो। इसके बाद राजा व रानी, योगी जी के चरणों में सादर साष्टाँग-प्रणाम करके तथा आज्ञा लेकर अपने राजमहल को वापिस चले आए।
उसी समय से राजा व रानी ने अपने आपको योगी के कथनानुसार इतना बांध् दिया, जिस प्रकार सिंह को कटघरे में बन्द कर देते हैं। जैसे-जैसे राजन भक्ति में आगे बढ़ते गए, वैसे-वैसे ही उनकी योग-शक्ति बढ़ती चली गयी। योगी के वचनों का समय भी समीप आता गया तथा ईश्वर का सिंहासन भी हिलने लगा। एक दिन राजा व रानी ओघट-घाट पर नहाने जा रहे थे। ईश्वर का विधान अनुकूल था। क्या देखते हैं कि वही कालगुँजार योगी एक मरे हुए मृग में से माँस निकाल-निकालकर खा रहे हैं। उन्हें देखकर दोनों की खुशी का पारावार ना रहा। राजा व रानी दोनों करबद्ध होकर एक टाँग से खड़े हो गये। क्षणोपरान्त जब योगी जी ने उनकी तरफ देखा तो उन्हें संकेत किया। दोनों बड़े उत्साह के साथ भागते हुए उनकी ओर गये। योगी जी ने उन्हें मृग के शरीर में से माँस का एक बकुटा भरकर दे दिया। तत्पश्चात् दोनों ने योगी जी को प्रणाम किया और फि‍र गंगा-स्नान को चले गये। शक्तिशाली महाराज जी के दिए हुए प्रसाद को जब उन्होंने गंगाजी के घाट पर खोलकर देखा तो उसमें इतना स्वादिष्ट-भोजन था कि वैसा ना कभी खाया न खाने की आशा की। राजा व रानी ‘प्रसाद’ को खाकर अपने महल को चले आए। दोनों सदैव ‘गुरु’ के ध्यान में ही मग्न रहते थे। कुछ समय पश्चात समयानुसार तपस्या व गुरु-आशीर्वाद के प्रताप से उन्हें ‘सत्यदेव’ नाम का सुत प्राप्त हुआ।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र साधरण राजा नहीं थे। वे दृढ़ प्रतिज्ञावान थे। अपने वचनों से कदापि पीछे हटने वाले नहीं थे। उनके गुरु का नाम ‘झिलमिला तीर्थ’ था। कुन्दनपुरी में फाल्गुन मास में अम्बकेश्वर मन्दिर पर मेला लगता है तथा काँवर चढ़ते हैं। इसी पर्व पर एक समय का वृतान्त है कि सभी नगर-वासी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। खेतों में पका हुआ अनाज खड़ा था। यकायक राजा धर्म धुरेन्द्र ने बादल की ओर देखा। समस्त ‘बादल’ ओलों से भरा हुआ था। राजा ने सोचा कि यदि वर्षा तथा ओलों से फसल नष्ट हो गयी तो मेरी प्रजा क्या खाएगी? तुरन्त उन्होंने गुरु-मंत्र का उचित-रूप से स्मरण किया तथा ‘गुरु’ का ध्यान किया। उन्होंने आकाश में भागते हुए समस्त बादलों को एकत्रित करके गंगा जी की रेती में गिरा दिया। राजा के इस कौतुक को देखकर प्रजा अत्यन्त प्रभावित हुई इस घटना के पश्चात् प्रजा, राजा को ईश्वर-तुल्य मानने लगी।
देख सुख-सम्पत्ति राजपाट, राजन को होत वैराग्य।
पूर्वजन्म के तपों से, राजन राजपाट करते हैं त्याग।।
जब राजन को पूर्ण सुख प्राप्त हो चुका तो राज्य करते-करते पूर्वजन्म की तपस्या ने उनके चित्त में ऊफान लिया। राजा कहने लगे कि अहोकष्ट! महाकष्ट! राज्य-सुख के लिए मैंने अपने वंश को चलाने हेतु घोर तपस्या की। गुरु महाराज ने वो भी पूर्ण की। अब हमें क्या करना है? जब हमारे पूर्वज भी इस राजपाट को अपने साथ नहीं ले गये तो क्या ये हमारे साथ जायेगा? रानी ने राजा को वैराग्य से भरा हुआ देखकर कहा कि, ‘‘प्रभु! आप समस्त रात्रि क्यों बैठे रहते हो?’’ बहुत आग्रह करने पर राजा बोले, ‘‘रानी! राज्य से अब मेरा मन विरक्त हो चुका है। राज्य-त्याग के लिए अब मेरा मन व्याकुल है।’’ इतनी बात सुनते ही रानी, राजा के पैरों में गिर पड़ी। कहने लगी, ‘‘प्रभु! ये तो आपने मोक्षपदगामी बात कही है। सन्तान तथा राजपाट से किसका नाम चला है। हे राजन्! यदि आप वनखण्डों में मुझे नहीं ले गए तो मैं आपके जाते ही सती हो जाऊंगी। मैं पतिव्रता नारी हूँ।’’ रानी की इतनी बात सुनकर राजा को महा-सन्तुष्टि हुई राजन सोचने लगे कि मैंने तो केवल राज्य-त्याग का ही संकल्प किया है परन्तु रानी का वैराग्य तो मुझसे भी बढ़कर निकला। फि‍र राजन सोचने लगे कि जो राजा बनकर राज्य में ही रहते हैं तथा राज्य में रहकर ही मर जाते हैं, वे राजा नर्कगामी होते हैं। अर्थात् उन्हें स्वर्ग नहीं मिलता। राज्य तो एक नर्क के समान है।
अतः राजा व रानी ने मंत्रणा करके अपने गुरुदेव श्री झिलमिला तीर्थ को सादर आमंत्रित किया। दोनों ने सादर साष्टांग-प्रणाम करके गुरुदेव को राजसिंहासन पर आसीन किया। गुरु महाराज को सप्रेम भोजन कराके राजा व रानी कहने लगे, ‘‘हे गुरुदेव! अब हमारा ‘मन’ राज्य से विरक्त हो चुका है। अब हम वनखण्डों में तपस्या हेतु जाना चाहते हैं।’’ राजा व रानी की बात सुनकर गुरु महाराज शान्त-चित्त बैठे रहे। कुछ देर बाद गुरुदेव बोले कि ‘‘तुम्हारी पूर्वजन्म का तपस्या की फूल खिल चुका है। ये जो तुमने सोचा है, ये तो बड़े सौभाग्य की बात है। अब आप संस्कार-विधि‍ से अपने सुत को बुलाकर उसका राजतिलक कराओ। गुरुदेव के आदेशानुसार राजा ने अपने सुत ‘सत्यदेव’ को बुलाकर उसका राजतिलक करा दिया तथा उसे राजसिंहासन पर पदासीन करके राजा व रानी मनोवांछित दान करने लगे। बहुत द्रव्य लुटाया गया । गरीबों को वस्त्र तथा अन्‍न दिया गया। दान आदि से निवृत्त होकर राजा व रानी ने भगवे वस्त्र धारण किये। इसके बाद राजा व रानी ने गुरु महाराज के चरणों में मस्तक झुकाया तथा गुरु से आशीर्वाद लेकर कहा कि ‘‘महाराज! इस भेष की गरिमा व लाज रखने की हमें शक्ति प्रदान करें। अब हम कभी भोजकट-दरावर कुन्दनपुरी लौटकर नहीं आएँगे। ये हमारी सूर्यकुल की अटल-प्रतिज्ञा है।’’ इतना कहकर राजा व रानी ने वनखण्डों के लिये सहर्ष प्रस्थान किया।

Monday, April 27, 2009

महाराजा श्वेत

महाप्रतापी, महाबलशाली, महातपधरी, प्रतिभाशाली, तपोवन धम, महानगरी भोजकट-दरावर के प्रथम राज्य-संचालक महाराजा श्वेत, लोध्वंश कश्यप-गोत्रा के ज्वलन्त सूर्य थे। उनकी कीर्ति-गाथा को देवर्षि नारद-मुनि के मुखारविन्द से श्रवण करके स्वयं स्वर्ग-सम्राट अर्थात् देवराज इन्द्र के हृदय में भी ईष्र्या और द्वेष की ‘अग्नि’ धधक उठी थी। जिनकी सत्यनिष्ठा एवम् कर्तव्य-परायणता और दृढ़-संकल्प शक्ति को देखकर समूचा देव-समाज भी आश्चर्य-चकित था।ऐसे युग-पुरुष, महामानव, महाराजाधिराज महानगरी भोजकट-दरावर जनप्रिय, लोकपूज्य व सत्गुरु स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज के वंशाधिकारी एवं कुल-पूर्वज थे। परम-पूज्य महाराज श्वेत के चरण कमलों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम। उनकी प्रिय महानगरी भोजकट-दरावर के कण-कण की सहत्रा बार चरण-वन्दना जिसके बहुमूल्य गर्भ से ऐसे दानवीर, त्यागी, तपस्वी एवं सत्यवादी राजाओं ने बार-बार जन्म लेकर लोधवंश कश्यप-गोत्रा की कीर्ति-गाथा को अमृत्व प्रदान किया है।वैसे तो समस्त सृष्टि ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश की धरोहर है। सात लोक, चौदह भुवन और दसों दिशाओं में उस सर्व-शत्तिमान परम-पिता परमेश्वर की ही लीला व्याप्त है। स्वर्गलोक, मृत्युलोक, बैकुंठ, परम-धाम, आकाश, पाताल, नर्कलोक सभी अपने-अपने कर्मों के अनुसार ‘जीवात्मा’ को प्राप्त होते हैं, विशेषकर स्वर्गलोक जो कि मृत्युलोक तथा नर्कलोक के मध्य स्थित है। मृत्युलोक में मानव अपने कर्मों के अनुसार अपनी अग्रिम-योनि निर्धारित करता है। सत्य, धरम और न्याय का पालन करने वाला ‘मनुष्य’ जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर तथा लख-चैरासी के भंवर-जाल को तोड़कर ‘स्वर्ग’ का अधिकारी बनता है। इसके विपरीत पापी, अधर्मी तथा अत्याचारी घोर-नर्क का भागी होता है। मनुष्य, देव और दानव अर्थात् इन दोनों के बीच मानव-प्रवृत्ति वाला प्राणी है जिसमें सात्विक, तामसिक व राजसिक अर्थात् तीनों ही गुण विद्यमान होते हैं।एक दिन राजा श्वेत अपने राजसिंहासन पर विराजमान होकर अपने कर्मचारियों को गोपनीय सन्देश दे रहे थे कि ‘‘वे अपने राज्य में सत्य, अहिंसा एवं न्याय की स्थापना हेतु घोर-परिश्रम करें। इस कार्य के प्रचार व परिपालन हेतु यदि उन्हें अपने प्राणों की भी आहुति देनी पड़े तो इस बलिदान के लिए सभी को तत्पर रहना चाहिए। ये मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। मेरे राज्य में कोई भूखा, नंगा, पीड़ित अथवा असहाय नहीं रहना चाहिए।इस आदेश की परीक्षा के लिए मैं स्वयं अपना भेष बदलकर, दिन अथवा रात्रि में अपने राज्य का भ्रमण करुँगा। यदि मेरा कोई राज्य-कर्मचारी अपने कर्तव्य पालन में विमुख प्रमाणित हुआ तो मैं अपने राज्य से सपरिवार उसका निष्कासन कर दूँगा ताकि मेरे राज्य में ऐसा कोई कर्मचारी जन्म ही न ले जो प्रजा के साथ विश्वासघात करे। अन्याय और दुराचार को मेरे राज्य में कोई शरण नहीं मिलेगी। यही हमारा राज्यादेश है और हम इसका अक्षरशः पालन चाहते हैं।’’इस बीच एक द्वारपाल ने आकर महाराज श्वेत को सूचना दी कि एक महर्षि भगवे-वेश में आपसे भेंट करने की अभिलाषा से द्वार पर उपस्थित हैं। महर्षि का नाम सुनते ही राजा श्वेत नंगे-पैर द्वार की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने ऋषि-महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और उन्हें आदर-सहित राजमहल में राजसिंहासन पर विराजित किया। राजा श्वेत का इतना अधिक आदर-सत्कार देखकर, महर्षि हर्षोल्लास से फूले नहीं समाये और गद्गद् होकर कहने लगे, ‘हे राजन्! मैं तुम्हारी धर्मिक प्रवृत्ति और साधू-भक्ति भाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैंने इस राज्य की प्रजा में घोर सुख-शान्ति का अनुभव किया है। तेरी प्रजा, तेरी राज्य-प्रणाली और प्रशासन से बहुत सन्तुष्ट है। तेरा जीवन सफल है राजन्। अब मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ?..... तेरा कुलगुरु कौन है जिसने तुझे इतनी उँची शिक्षा दी है?’’ कुलगुरु...। चैंक पड़े राजा श्वेत। गहरे असमंजस में डूबकर महाराजा श्वेत बोले, ‘‘हे महर्षि! मेरा कोई ‘कुलगुरु’ नहीं है और फिर राज्य-कार्य संचालन के लिए किसी ‘कुलगुरु’ की क्या आवश्यकता है? मैंने तो आज तक इस विषय पर विचार भी नहीं किया और रहा उच्च-शिक्षा व सफल राजनीति का प्रश्न, सो ये सब तो महाराज मेरे पूर्वजन्म के संस्कारों की ही देन है। इस जन्म में जो कार्य होगा, उसका फल अगले जन्म में भोगना होगा। हमारे कुल-वंश की परम्परा इसी भाँति सत्मार्ग पर चलती रहती है। मैंने अपने पूर्वजों की परम्परा ही देखी है। मैंने और किसी चीज़ का ध्यान ही नहीं किया कि गुरु-शक्ति भी कुछ होती है।’’महर्षि क्षुब्ध् होकर बोले, ‘‘तेरी अंहकार-युक्त वाणी ने तेरे समस्त सत्कर्मों पर ही पानी फेर दिया। तू नहीं जानता कि ‘कुलगुरु’ की क्या महत्ता है? अरे मूर्ख! गुरु के परामर्श बिना तो राज्य अधूरा है। अतः तेरा उद्धार असम्भव है। अज्ञानता के गहन भंवर में फंसे हुए मानव को ‘गुरु’ ही अपनी शक्ति से पार लगाता है। गुरु के आशीर्वाद बिना तो भक्ति व शक्ति दोनों ही अर्थहीन हैं। आज तूने मेरे समक्ष ये कहा कि मैं ‘कुलगुरु’ की आवश्यकता ही नहीं समझता। जा! हम तुझे यह श्राप देते हैं कि तू अपने इस जीवन के सत्कर्मों के कारण स्वर्ग का भागी होकर भी गुरु-संसर्ग के लिए तड़पता रहेगा। गुरु-आशीर्वाद के अभाव में तेरा उद्धार ‘स्वर्ग’ में भी सम्भव नहीं है। याद करो राजन्! तुम्हें जो राजतिलक कराया गया था वो तुम्हारे ‘गुरु’ ने ही तो कराया था, तुम्हें तब भी यह ज्ञान नहीं हुआ। लगता है अंहकारवश माया के सींग जम आये हैं।’’ राजा श्वेत बोले, ‘‘महाराज! मुझे क्षमा करें।’’ जैसे ही महाराज श्वेत महर्षि के चरणों में क्षमा माँगने के लिए झुके, अचानक राजदरबार में क्षण भर के लिए सघन-कोहरा सा छा गया और जब प्रकाश हुआ तो देखा ‘महर्षि’ अन्तध्र्यान हो चुके थे।इस घटना के पश्चात् महाराज श्वेत के मन में स्वतः वैराग्य-भावना जागृत हो उठी। उन्हें राजपाट से घृणा उत्पन्न हो गयी। यहाँ तक कि समस्त सुख, सम्पत्ति और वैभव से परिपूर्ण महलों में उनका दम सा घुटने लगा। महर्षि की भविष्यवाणी उनके हृदय को कचोटने लगी तथा उनके मन-मस्तिष्क को झकझोरने लगी कि µ ‘‘स्वर्ग का भागी होने पर भी गुरु-सम्पर्क का तुझे अभाव तड़पाता रहेगा।’’ वे सोचने लगे कि हे परम-पिता परमेश्वर! मैं ऐसे किस आध्यात्मिक-दण्ड का भागी बनूँगा कि स्वर्ग प्राप्त होने पर भी मेरा उद्धार नहीं होगा। ये कैसा श्राप है भगवन्? यही सोच-सोचकर महाराजा श्वेत और महारानी धरम का मन विचलित हो उठा। अन्त में जब सब कुछ सहन शक्ति से परे हो गया तो तत्काल राजा ने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि हम आज ही सूर्य छिपने से पहले, अपने पुत्रा ‘कुंवर धर्म धुरेन्द्र’ का राजतिलक करना चाहते हैं। शुभ घड़ी व तिथि-मुहूर्त में कुंवर धरम धुरेन्द्र का राजतिलक करके महाराजा श्वेत तपस्या करने हेतु जंगलों में प्रस्थान कर गये।अब कन्दमूल फल ही उनका आहार था। तत्पश्चात् वे घोर तपस्या में इतने लीन हुए कि निराहारी रहकर वे अपनी साध्ना में संलग्न रहने लगे। अन्त में जब उन्होंने अपना शरीर त्याग तो उन्हें लेने के लिए भगवान का विमान पहुँचा। विमान उनको लेकर स्वर्ग चला गया। स्वर्ग में जाकर उनको बहुत सुन्दर महल रहने को मिले, अनेक दास-दासियां सेवा को मिलीं तथा पहनने के लिए रत्न-जड़ित वस्त्रा प्राप्त हुए। अनेकों अप्सराएँ उन्हें पत्नी के रूप में भोगने को मिलीं परन्तु खाने को कुछ नहीं मिला। अतः ‘राजा श्वेत’ क्षुध से पीड़ित होकर चिल्लाये कि मुझे भोजन दो! मेरा सब कुछ ले लो। दास-दासियों ने कहा, ‘‘महाराज! महलों में आपके लिए सभी सुख उपलब्ध हैं परन्तु ‘भोजन’ के नाम पर तो एक फल भी उपलब्ध नहीं है।’’ राजा श्वेत भूख से तड़पते-बिलखते, भगवान विष्णु व ब्रह्मा आदि के पास गये उनसे भोजन की याचना की। उन्हें उत्तर मिला कि, ‘‘राजन! तुमने जो दान किया है वह तुम्हारे स्वर्ग आने से पूर्व ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो चुका है। जो दान नहीं किया, वह कहाँ से आए?’’ राजा श्वेत हाथ जोड़कर दीनवाणी में बोले, ‘‘हे प्रभु! हे जगदीश्वर! ये सब सुख ले लो और मुझे भोजन दे दो।’’ इस पर भगवान-विष्णु बोले, ‘ये नियम के विरुद्ध है। राजन्! जो कुछ दान दिया जाता है वही आगे चलकर मिलता है। तुमने कभी किसी जीवन को भोजन-दान नहीं किया, कभी किसी कुत्ते तक को रोटी का टुकड़ा नहीं डाला। केवल अपने शरीर को सुन्दर-सुन्दर राजसी वस्त्रों से सजाया, सँवारा व स्वादिष्ट-भोजन व मेवा-मिष्ठानों से पाला पोसा। अतः अब तो ये ही हो सकता है कि तुम्हारा मृतक-शरीर जो कि आज भी उसी वन में तालाब के किनारे पड़ा है, उसी को आप जाकर खा लो और अपनी भूख-पिपासा शान्त करके फिर स्वर्ग में वापिस आकर अपने दान किये हुए भोगों को यथावत् भोगते रहो।’’ राजा श्वेत बहुत दुःखी हुए। लेकिन कर भी क्या सकते थे? महाशक्ति के नियमों का पालन तो करना ही था।अब ‘राजा’ विमान द्वारा प्रतिदिन पृथ्वी पर आते तथा अपने मृतक-शरीर को काट-काटकर खाते और फिर स्वर्ग को वापिस लौट जाते। इस प्रकार यह उनका दैनिक कार्यक्रम बन गया था। अतः राजा श्वेत ने दुःखी होकर एक दिन ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि ‘‘हे भगवन् मेरा यह मृतक-शरीर एक न एक दिन तो समाप्त हो ही जायेगा। तदोपरान्त मेरे लिए भोजन की क्या व्यवस्था होगी?ब्रह्मा जी ने कहा, ‘‘राजन्! तुम्हारा वह शरीर कभी भी समाप्त नहीं होगा। वह अक्षय है और अविनाशी है। तुम्हारे सद्कर्म और भक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण वह कभी खराब भी नहीं होगा। अतः तुम निश्चिन्त होकर वहाँ जाकर नित्य-प्रतिदिन अपना पेट भर लिया करो।’’विवश राजन अपना पेट किसी तरह तो भरता ही था किन्तु अत्यन्त दुःखी था। सोचता था कि इस पाप-कर्म से मेरी कब और कैसे मुक्ति होगी? एक दिन वह इसी असमंजस में डूबते-उतरते नारद जी के पास पहुँचे और अपनी समस्त मनोव्यथा कह सुनाई तथा अपने उद्धार का उपाय भी पूछा। नारद जी बोले, ‘‘हे राजा श्वेत! प्रत्येक आध्यात्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दण्ड का ‘अन्त’ तो अवश्य हुआ ही करता है। किन्तु मुहूर्त महाबलशाली है। जब दण्ड भोगते-भोगते किसी पाप या अपराध् का अन्त हो जाता है तभी उसकी मुक्ति का मुहूर्त उदय हो जाता है। हे राजा श्वेत! तुमको अपना शरीर खोते हुए देखकर जब अगस्त्य मुनि जी की दृष्टि तुम पर पड़ जाएगी और तुम उनके दर्शन कर लोगे, तभी तुम अपने को कृतार्थ व मुक्त समझ लेना क्योंकि अगस्त्य मुनि जी महान शक्तिशाली और योगेश्वरों के भी योगेश्वर हैं।’’कालान्तर के पश्चात् एक दिन देवयोग से अगस्त्य मुनि जी विचरण करते हुए उसी वन-स्थली में आ पहुँचे। वहाँ पर तालाब के किनारे मुनिवर ने एक अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति का ‘शव’ पड़ा हुआ देखा। कुछ देर विचार कर मुनिदेव सोच ही रह थे कि कौन इस जंगल में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर गया? इतने में ही उन्होंने देखा कि एक विमान ‘स्वर्ग’ से उतरा और उसमें से एक सुन्दर युवक अनेक रूपवती अप्सराओं के साथ आया। युवक, विमान से उतरकर उस मृतक-शरीर को खाने लगा। अप्सराएँ खड़ी-खड़ी यह कृत देखती रहीं। जब वह युवक मृत-शरीर का भक्षण करने के बाद विमान पर चढ़ने के लिए चला, तो मुनिवर ने उसके चेहरे को देखकर पहचान लिया। अगस्त्य मुनि जी उच्च-स्वर में पुकार कर बोले, ‘‘अरे श्वेत! तुम ऐसा घृणित-कार्य किस प्रयोजन हेतु करते हो? यह महापाप भोगने का फल तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ? अरे राजन्! तू तो राजा अशोक का वंशज है, जिसने इस भूपटल पर कभी एकछत्र राज्य किया था। अतीत के उस लोह-कुल का नाम आज भी भूमण्डल पर विकृत रूप में लोध-वंश नाम से प्रसिद्ध है।’’ इतना सुनते ही राजा श्वेत करबद्ध होकर अगस्त्य मुनि जी के चरणों में गिर पड़े। राजा बिलख-बिलखकर रोने लगे। करुणानिधन अगस्त्य मुनि जी को राजा श्वेत पर दया आयी। उन्होंने राजा को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। राजा अत्यन्त व्यथित होकर बोले, ‘‘हे नाथ! आज मेरा उद्धार हो गया है। जिन पापों को मैं बहुत दिनों से भोग रहा था, वे आज समाप्त हो गये हैं।’’ अगस्त्य मुनि जी ने कहा, ‘‘जाओ राजन्! तुम आज से स्वर्ग में आनन्द करो। अब तक तुमने किसी देवर्षि का श्राप भोगा, अब एक मुनि का आशीर्वाद भोगना। तुम्हें भूख-प्यास कुछ भी नहीं सतायेगी।राजा श्वेत, मुनि अगस्त्य जी के दर्शन कर ‘कृतार्थ’ हो गये। उनके मन में एक अलौकिक व आध्यात्मिक शक्ति का उदय हुआ। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। मारे खुशी के इतनी वैराग्य-भावना उमड़ी कि राजा श्वेत से रुका न गया। अब वह क्षत्रिय-वंशज होने के कारण विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन सी अमूल्य-धरोहर है जिसे मैं गुरु-चरणों में अर्पित कर दूँ। अन्त में उनका ध्यान अपनी उस अमूल्य-दिव्यमणि की ओर गया जिसे कभी देवराज इन्द्र ने राजा श्वेत को प्रसन्न होकर भेंट की थी। राजा श्वेत ने उसी दिव्यमणि को तुरन्त अगस्त्य मुनि जी को अर्पण कर दिया और उनके चरण स्पर्श करके विदा ली। तत्पश्चात् राजा श्वेत ने अगस्त्य मुनि जी को ही अपना पूज्य-गुरु चुन लिया।

राजा नल व दमयन्ती

कुन्दनपुरी का इतिहास बताता है कि सतयुग में इस तपोभूमि पर कई महान शक्तियों ने अवतार लेकर समस्त मानव-जाति का समय-समय पर मार्गदर्शन एवं उद्धार किया है। इसी श्रृखला में, सतयुग में महानगरी कुन्दनपुरी के प्राँगण में एक अत्यन्त शक्तिशाली, दानशील व सत्यवादी राजा हुए हैं। इनका नाम राजा भीम सिगर था। इनके तीन पुत्र तथा एक पुत्री थी। इनकी रानी का नाम अशोक सुन्दरी था जो एक अत्यन्त धर्मिक-प्रवृत्ति की पतिव्रता नारी थी। पुत्रों के नाम थे दम, दान्त और दमन। ‘दम’ नाम इसलिये पड़ा क्योंकि उसने अपने मन पर पूर्ण-रूप से अधिकार कर लिया था। वह ‘मन’ के पीछे नहीं चलता था बल्कि वह ‘मन’ को अपने पीछे चलाता था। ‘दान्त’ नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उसने सामने बड़े-बड़े ‘दैत्य’ आकर झुकते थे। राजा का ‘राज्य’ भूपटल पर पूर्ण-रूप से विख्यात था कि ये राजा ‘मन’ के पीछे नहीं भागते जबकि बड़े-बड़े राजा मन के पीछे भागते थे। ये महान शक्तिशाली व तेजस्वी राजा हुए हैं। ‘दमन’ नाम इसलिये पड़ा क्योंकि उसने बाल्यावस्था से ही पूर्ण-रूप से अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया था। इसलिए प्रजा की दृष्टि में वे ईश्वर के तुल्य पूज्यनीय हो गए थे। ये ही तो इनके तप व तेज का प्रभाव था। राजा भीम सिगर की पुत्री ‘दमयन्ती’ इतनी सुन्दर, सुशील और कीर्तिवान थी कि इन्द्रादि देवता भी उससे विवाह के लिये उत्सुक रहते थे। उसी काल में निषध् देश में महाश्रेष्ठ राजा ‘प्रथम’ के यहाँ राजकुमार ‘नल’ ने जन्म लिया जो आगे चलकर महान गुणवान तथा शीलवान राजा प्रसिद्ध हुआ। राजा नल बड़े प्रतापी राजा थे। राजधानी कुन्दनपुरी से निषध् देश को आने-जाने वाले याचकों से एक-दूसरे के गुणों की प्रशंसा सुनकर राजा नल तथा दमयन्ती के हृदय में परस्पर ‘अनुराग’ उत्पन्न हो गया। ये अनुराग बढ़ते-बढ़ते इतना प्रबल हो गया कि वह अपनी सीमा को भी लाँघ गया। जब राजा भीम सिगर ने देखा कि उनकी कन्या, विवाह के योग्य हो गई है तो उन्होंने पुत्री ‘दमयन्ती’ का स्वयंवर रचाने का निश्चय किया। राजमहल से देश-विदेश में इसकी घोषणा करा दी गयी व निमंत्राण भेज दिये गये।स्वयंवर का समाचार पाकर दूर-दूर के नरेश ‘कुन्दनपुरी’ पधारने लगे। निषध देश के राजा ‘नल’ ने भी इस स्वयंवर के लिये प्रस्थान किया। उधर देवलोक से राजा इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम-देवता भी ‘दमयन्ती’ को प्राप्त करने के लिये चल दिये। देवताओं को भली-भाँति विदित था कि दमयन्ती, राजा ‘नल’ को चाहती है। स्वयंवर के लिए आते समय मार्ग में सूर्य के समान कीर्तिवान अति-सुन्दर राजा ‘नल’ के तेज को देखकर देवतागण आश्चर्यचकित रह गये। मध्य-मार्ग में ही वे राजा नल के पास गये और बोले कि राजन! सुना है आपकी सत्यवृत्ति की पताका आकाश में लहराती है। क्या इस स्वयंवर में आप हमारी सहायता के लिये हमारा दूत बनना स्वीकार करेंगे? राजा नल ने देवताओं का आग्रह स्वीकार कर लिया। देवताओं ने राजा की परीक्षा लेते हुए कहा कि हे राजन्! आप हमारे दूत के रूप में दमयन्ती से जाकर कहिए कि हम लोग उससे विवाह करना चाहते हैं। अतः हम में से वह किसी को भी अपना पति चुन ले। राजा नल ने नम्रता-पूर्वक कहा कि हे देवलोक वासियो! आप लोग जिस उद्देश्य से दमयन्ती के पास जा रहे हैं, उसी उद्देश्य से मैं भी उसके पास जा रहा हूँ अतः वहाँ मेरा, आपका दूत बनकर जाना उचित नहीं है। देवतागण कहने लगे कि हे राजन्! आप पहले ही हमारा दूत बनना स्वीकार कर चुके हैं। अतः अब आप अपनी मर्यादा को तजकर अपना वचन असत्य ना करें। राजा नल को देवताओं का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। साथ ही साथ इन्द्र ने राजा नल को वरदान दिया कि दमयन्ती-स्वयंवर में प्रविष्ट होते समय आपको द्वारपाल आदि भी न देख सकेंगे, इससे आप सहज ही राजमहल में प्रवेश कर जायेंगे।तत्पश्चात् राजा नल, दमयन्ती के भवन में पहुँच गये। दमयन्ती तथा उसकी सखियाँ परम-सुन्दर युवा-पुरुष को अपने समीप आया देखकर आश्चर्य-चकित रह गयीं। वो अपनी सुध-बुध् ही खो बैठीं। राजा नल ने दमयन्ती से अपना परिचय देकर कहा कि हे देवी! मैं इन्द्र, वरुण, यम और अग्नि-देवता का दूत बनकर आपके पास आया हूँ। ये देवतागण आपसे विवाह करना चाहते हैं, अतः आप इनमें से किसी को भी अपना ‘वर’ चुन सकती हैं। दमयन्ती ने राजा नल का परिचय पाकर कहा कि हे नरेन्द्र! मैं तो पहले ही अपने मन में आपको अपना ‘वर’ मान चुकी हूँ। मैंने आपके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। अतः कृपया अब आप अपनी इस तुच्छ दासी को, अपने चरणों में स्थान दीजिये। यदि आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं विष खाकर या आग में जलकर अथवा जल में डूबकर या फिर फांसी लगाकर अपने ‘प्राण’ त्याग दूंगी। राजा नल ने बड़ी सच्चाई से ‘दूत’ के कर्तव्य का पालन किया। वो अपने कर्तव्य पर अडिग रहे। यद्यपि वे स्वयं दमयन्ती को चाहते थे, फिर भी उन्होंने देवगणों के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का वर्णन करके दमयन्ती को समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया। लेकिन दमयन्ती स्वर्ग के ऐश्वर्य तथा मरीचिका से तनिक भी प्रभावित नहीं हुई। राजा नल ने कहा, हे देवी! देवताओं को छोड़कर आपका मुझ मनुष्य को चाहना, कदापि उचित व तर्क-संगत नहीं है। अतः आप अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं को क्रोधित करने से मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है। अतः आपको मेरी बात मान लेनी चाहिए। यह सुनकर दमयन्ती डर गयी और उसके नेत्रों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती कहने लगी, हे राजन्! मैं देवताओं को नतमस्तक होकर, मन में आपको ही अपना पति मानती हूँ। अब कोई दूसरा उपाय सोचने योग्य नहीं रहा। फिर भी राजा नल ने दमयन्ती को स्वयंवर में देवताओं को ही अपना वर चुनने का परामर्श दिया तथा वहाँ से विदा ली। लौटकर देवताओं को राजा नल ने समस्त वृतान्त कह सुनाया।स्वयंवर की सभा प्रारम्भ होने पर चारों देवता राजा नल के समान अपना ‘रूप’ धारण करके, राजन के पास बैठ गए। जब दमयन्ती वरमाला लेकर स्वयंवर-सभा में आयी तथा उसने राजा नल के समान पाँच पुरुषों को पदासीन देखा तो वह ‘नल’ को न पहचान सकी और अत्यन्त सोच में पड़ गई। उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में उसने इस समस्या के समाधान के लिये देवताओं की शरण में जाने का निश्चय किया। दमयन्ती कहने लगी, हे परम-पूज्य देवगणों! आपको विदित ही है कि मैं पहले ही मन तथा वाणी से राजा नल को अपना पति-परमेश्वर स्वीकार कर चुकी हूँ। राजा नल की प्राप्ति के लिये मैं चिरकाल से तप तथा व्रत भी कर रही हूँ। अतः हे भगवन्! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो मेरे सत्य के प्रताप से देवलोक के देवतागण मुझे मेरे राजा नल के दर्शन करा दें तथा ऐश्वर्यशाली देवतागण भी अपने आपको प्रकट करें, जिससे मैं नरपति नल को पहचान सकूं। पतिव्रता का तिरस्कार करने का साहस तो देवताओं को भी नहीं होता। दमयन्ती की इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे ‘देवता’ तथा ‘मनुष्य’ में भेद करने की शक्ति प्रदान कर दी। उसने देखा कि पाँच में से चार पुरुषों के शरीर पर न तो पसीना है, न धूल है तथा उनके शरीर की ‘छाया’ पृथ्वी पर नहीं पड़ रही है और वे पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर रहे हैं व उनकी माला के ‘पुष्प’ तनिक भी नहीं कुंभला रहे हैं। दमयन्ती ने सभी देवताओं को पहचानकर उन्हें प्रणाम किया। पाँचवे ‘पुरुष’ को जिसके शरीर पर कुछ धूल पड़ी थी, कुछ पसीना आ गया था व उसके शरीर की छाया भी पृथ्वी पर पड़ रही थी तथा वह भूमि को स्पर्श भी कर रहा था और उसकी माला के पुष्प कुछ कुंभला गये थे, दमयन्ती ने पहचान लिया कि ये ही राजा नल हैं। उसने तुरन्त उनके कंठ में जयमाला डाल दी। इस प्रकार अपनी दृढ़-निष्ठा तथा पतिव्रता के प्रभाव से, दमयन्ती ने पति रूप में राजा नल को ही प्राप्त किया। देवताओं ने प्रसन्न होकर दमयन्ती को आशीर्वाद दिया।सत्पुरुषों की कितनी सत्य-प्रतिज्ञा और दृढ़-निष्ठा होती है। जिस देवी-शक्ति ने स्वर्ग के सुख, ऐश्वर्य तथा भोगों को त्यागकर अपनी वाणी को तनिक भी न डगमगाने दिया और मनुष्य-जन्म धरण करने वाले राजा नल से ही विवाह किया, उस सतयुगी-देवी की परम्परा अर्थात् धरम-निष्ठा और पतिव्रता की व्याख्या, हम आज तक अर्थात् इस कलयुग में भी करते हैं।

भीम उत्सव था वहां, उसने कुन्दनपुरी राजधानी में,
संसार के सब भूप थे, उस स्वयंवर की शानी में।
भीम की थी सती सुन्दरी, वरमाला लिए हाथ में,
भूपों को थी देखती, लिए सखी सहेली साथ में।
मुकुट बांधे शीश थे, राजेश नल बैठे जहां,
हषिर्त हो दमयन्ती ने, डाली थी जयमाला वहां। ।।1।।

त्याग दिए स्वगार्दि भोग, दमयन्ती से देवगण विवाह करने आये थे,
निषध देश के स्वयंवर में, राजा नल भी वहां पर आये थे।
प्रतिज्ञा नहीं तोडी उसने, रीति ये रघुकुल की न्यारी,
त्याग हो तो एेसा हो, वचन से पीछे हटी ना नारी। ।।2।।

सती दमयन्ती को साथ लेकर, राजा नल सब चल दिए,
महाराज भीम सिगर ने आदर सहित, भूप सारे विदा किए।
नरवर अपने गढ में जाकर, फिर राज्य वो करने लगे,
सुख-चैन देकर अपनी प्रजा को, कष्ट उनका हरने लगे।
प्राचीन है राजधानी धाम, हेतराम हैं जन्मे यहां,
गुरुदेव इस कुन्दनपुरी नगरी का, पूरा हुआ है इमत्यहां ।।3।।

तेरी भूमि है उत्तम निर्मल, तीर्थ-धाम कहलाती है,
तेरे कुल की रीति यही है, प्रतिज्ञा पूर्ण कराती है।
बहे थी गंगा मां वहां पर, सत्पुरुषों की याद दिलाती थी,
देखकर वहां की तपोभूमि, हेतराम को नित्य रुलाती थी। ।।4।।

गुप्त प्रगट व सिद्ध-पुरुष, इस पुण्य-भूमि में विचरते हैं,
अर्द्ध्-रात्रि में अवन्तिका देवी की, नित्य प्रति वे पूजा करते हैं।
महापुरुष पतित-उद्धारक, आपको कोटि-कोटि हमारा प्रणाम,
योगी-सुत मां सोमती को देकर, आप गये परलोक धाम।
उन कालगुंजार योगेश्वर को, जल अंजुलि अर्पित कैसे करें,
इतना सामर्थ्य बल हम में नहीं, उनकी आराधना कैसे करें। ।।5।।

Friday, April 17, 2009

तपोभूमि कुन्दनपुरी का महात्म्य

द्वापर-देव भगवान श्री कृष्ण की प्रसिद्ध ससुराल, महानगरी कुन्दनपुरी जो अतीत में कुण्डिनपुरी नाम से समस्त भूमण्डल पर विख्यात थी, आज भी पावन गंगा मैया की गोद में बसी हुई अपने प्राचीन इतिहास को दोहरा रही है। इसकी कीर्ति-गाथाएँ आज भी गंगा की पावन लहरों में गूँजती है। कुन्दनपुरी का कीर्ति-स्तम्भ कभी भी धूमिल नहीं पड़ेगा। उसका अमर इतिहास गंगा-माँ की धराओं के अनवरत हिलोरों में सतत् निखरता रहता है। ‘कुन्दनपुरी’ नाम की सार्थकता आज भी इस भूमि में पूर्ववत् विद्यमान है। जिस पवित्र देवस्थली की देहलीज में पैर पड़ते ही नास्तिक पुरुष की आत्मा में भी भत्ति-प्रवाह उमड़ उठता है, उसके समस्त मनोविकार, मानसिक अशान्ति, विद्वेष एवं दुर्भावनाओं का क्षण-मात्रा में ही विनाश हो जाता है, ऐसी देवस्थली के कण-कण को शत्-शत् प्रणाम, शत्-शत् नमन।
शत्-शत् बार नमन, सर्वदा उन सत्पुरुषों की शक्ति को।
राजपाट, सुख-सम्पत्ति, सब अर्पित कर दी जिन्होंने गुरु-भक्ति को।।
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के प्रसिद्ध् जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर, उत्तरी दिशा में राजकीय-मार्ग पर बसा ये ग्राम कुन्दनपुरी आज ‘आहार’ नाम से प्रसिद्ध् है। गंगा-माँ के आंचल में बसा ये नगर, कलयुग का कल्पवृक्ष बनकर ‘ भक्त श्रद्धालु सत्पुरुषों की मनोभिलाषाओं व आकाँक्षाओं की पूर्ति में सक्षम है। जगदम्बे मातेश्वरी अवंतिका देवी गंगा-माँ की गोद में यहाँ विराजमान हैं, जिनके दर्शन हेतु वर्ष भर में असंख्य भाग्यशाली भक्त लोग आते हैं। आहार-वासियों का कहना है कि आज भी नवरात्रों की उपवास अवधि में एक शेर शक्ति-पुँज महारानी अवंतिका देवी के मन्दिर में पदार्पण करके भक्ति-पूर्वक प्रणाम करता है और फिर तीन बार दहाड़ मारकर, गंगा-माँ के घनघोर वनखंडों में अदृश्य हो जाता है। कुन्दनपुरी, भगवान श्रीकृष्ण के ससुर महाराजा भीष्म की राजधानी थी। यहाँ गंगा जी के किनारे-किनारे ऊबड़-खाबड़ टीलों पर बसे जंगल की शोभा ‘अद्वितीय’ है। महाराजा भीष्मक के राजमहल, शाही-किले व समस्त राजकोष जो कि कालान्तर में इन्हीं टीलों के गर्भ में समा गये थे, उनके खंडहर-अवशेष आज भी इन्हीं टीलों में अतीत की गाथाएँ सुनाते हैं। ऋषि-मुनियों ने अपनी-अपनी भाषा में इस तपोभूमि की कुछ इस प्रकार व्याख्या की है-
कुन्दनपुरी राजधानी के, निकट ही गंगा बहती है।
ये भूलों को ऋषि-मुनियों की, तपोभूमि की शिक्षा देती है ।।
शोर मचाती, धूम मचाती, गंगा जी वहाँ रमती हैं।
पाप-नाशिनी जग-तारिनी, अपनी मस्ती में बहती हैं।।
शेर बघेरे चीते रह-रहकर, किलोल करते हैं जहाँ।
कुन्दनपुरी के जंगलों में, गूँजती है उनकी दहाड़ वहाँ।।
उस तपोधरा पर जाने से, गंगा पापों को हरती है ।।
राजाओं के राज्य तपे थे, उस तपोभूमि के उपवन में।
ऋषि-मुनियों की घोर तपस्या, है भूमि के कण-कण में।
भीष्मक-राजा का राज्य तपा था, उस तपोवन की भूमि में।
शेर, बकरी, चीते पानी पीते, यहाँ एक घाट में।।
लोध् राजपूतों की, ये ही पुरातन बस्ती है ।
किले के ऊपर तोप रखी थी, आकाश में धुआँ उड़ता था।
दस फुट ऊंचा राजसिंहासन, भीष्मक राजा का चमकता था।।
हाथी घोड़े, फौज रिसाले, संगीनों का पहरा था।
रुक्मणी के पांचों भाइयों का, राम-लखन सा रहना था।।
भीष्मक राजा के धर्म-कर्म की, प्रकृति भी यश गाती है
उसी भूमि पर सीताजी ने, रुक्मणी का अवतार लिया था।
पिता भीष्मक राजा का, विश्व में ऊंचा नाम किया था।।
घोर तपस्या रुक्मणी कीन्हीं, इन्द्र-सिंहासन हिला दिया था।
रुक्मणी अवंतिका देवी, कृष्ण की विनती करती है।।
उसी भूमि पर कृष्ण जी ने, युद्ध किया था बड़ा भारी।
पूजा करती रुक्मणी की, अवंतिका ने प्रार्थना स्वीकारी।।
श्री कृष्ण के आगे, राजाओं का ताज झुका था।
रुक्मणी को हार, भीष्मक के यहाँ प्रकोप हुआ था।।
गंगा मैया जोश में आकर, भीष्मक-किले पर चढ़ती है।
भागीरथी गंगा जी ने, भीष्मक-किले पर हमले किये थे।
किले खजाने काट-काटकर, अपने गर्भ में समा लिये थे।।
ये दीन दशा देख देखकर, भीष्मक मन में हैरान हुए थे।
किले खजाने कटे देखकर, मन में अति परेशान हुए थे।।
हारकर भीष्मक-रानी, गंगा और गुरु से विनती करती है।
उस हारी हुई भूमि का नाम, सोचकर आहार धराया था।
तभी भीष्मक-पुत्र रुक्मी ने, भोजकट-दरावर नगर बसाया था।।
राजा रुक्मी ने भोजकट-दरावर में, एकछत्र राज्य किया था।
उसी भीष्मक-कुल में, ‘हेतराम’ ने जन्म लिया था।।
रमेशचन्द्रानन्द जी की मातृभूमि, सदा ही उनको जपती है।

-2-
कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर, जहाँ राजाओं के राज्य हुए।
गंगाजी के आँचल में हैं, ये युगों-युगों से बसे हुए।
प्राचीन राजधानी थी, इस तपोभूमि के भाग्य बड़े।
राजाओं के राज्य छूट गये, टूटे उनके किले पड़े।।
तहसील परगना लगते थे, वहाँ होते न्याय धर्म बड़े।
हाथी-घोड़े, फौज-रिसाले, ऊंचे-ऊंचे दुर्ग खड़े।।
इसी धरा पर राजा-रानी व कितने सन्त महान हुए।
भीष्मक राजा अति निपुण, सती रानी प्रभावती थी।
धर्म-कर्म में रमते सदा, प्रेम भरी उनकी वाणी थी।।
यज्ञ-हवन अनुष्ठान करे थे, राजाओं में थे बड़े दानी।
जिनकी कीर्ति-गाथा ऋषि-मुनियों ने, जग में थी बखानी।।
हार भीष्मक रुक्मणी को, आहार नगर विख्यात हुए।
रुक्मणी, रुक्मैया, राजा रुक्मेश थे बलवान बड़े।
रुकमदत्त व रुकमवीर, रुक्मणी-रूमावती में प्रेम बड़े।।
सकर कोठी राजाओं की, सुनहरे खिर्नी के वृक्ष खड़े।
भाँति-भाँति के पुष्प सुहावने, रंग-बिरंगे वृक्ष खड़े।।
इसी भूमि पर यति-सती और महासिद्ध् अवतार हुए।
कुन्दनपुरी की अद्भुत शोभा, मुख से कही नहीं जाती है।
इसे देखकर स्वर्ग-लोक की, सुन्दरता भी लजाती है।।
ये ऋषि-मुनियों की भूमि है, प्रकृति ये बतलाती है।
इस पावन धरनी पर जाने से, आत्म-शान्ति मिल जाती है।।
इस भोजकट-दरावर भूमि पर, राजा ऋषि महान हुए।
है निकट इसी के अम्बकेश्वर, जहाँ भारी मेला लगता है।
फाल्गुन मास शिव-चैदस को, यहाँ लाखों काँवर का जल चढ़ता है।।
इसी के निकट अवंतिका देवी, जहाँ राम-नवमी का मेला लगता है।
उसी स्थल पर रुक्मणी देवी का, रुक्मणी-कुंड दमकता है।।
इसी भूमि पर सिद्ध् आश्रम, जो संसार में िवख्यात।
इसी भोजकट-दरावर नगरी में, बालक हेतराम का जन्म हुआ।
बाल-लीला दीखन लागी, जैसे कृष्ण का अवतार हुआ।
लगा चरावन गायों को, आैर ग्वालों का सरदार हुआ।
गंगा-तट पर विचरण करके, बीयावान में ज्ञान हुआ।
ऋषि-मुनियों की सेवा कर, हेतराम शमशान देख हैरान हुए।
हाथ में लकुटि गऊ चरावे, ग्वालों में किलोल करे थे।
नित्य गंगा स्नान पान कर, देवों में ध्यान धरे थे।
शीर्षासन लगा-लगाकर, तट पर उल्टे तपा करे थे।
वनखण्डों में छुप-छुपकर, योग-समाधि लीन रहे थे।।
पूर्वजन्म की घोर तपस्या के, उदयमान तूफान हुए ।
अवतार लिया था श्री कृष्ण ने, दैत्यवंश मिटाने को।
रूप बदलकर कृष्ण आये, कलयुग का भार हटाने को।।
गुरु भक्तों ने भजन बनाये, जग का भय मिटाने को।
रमेशचन्द्रानन्द अवतरित हुए, भटकों को राह दिखाने को।।
हमारी चरण-वन्दना गुरुदेव को, जो युग-युग में विख्यात हुए।

3-
एक बार की बात हुई, पावन गंगा ने आक्रोश किया।
गंगा-जल फेला सब आेर, किले पर भी रोष किया।।
प्रविष्ट हुआ जब जल नगर में, किले को उसने हिला दिया।
काट-काट कर किला खजाना, सब अपने में समा लिया।।
गंगा में जब द्रव्य कटे थे, झनन मनन वहाँ होती थी।
जनता खड़ी कौतुहल देखे, किसी में सामथय ना होती थी।
आधा नगर कटा था जल में, जनता बड़ी भयभीत हुई।
ऋषि-मुनियों ने की कृपा, तब पावन गंगा शान्त हुई।।
इसी भूमि पर भीष्मक ग्रहे, ज्येष्ठ-पुत्रा राजा रुक्मी ने जन्म लिया।
भीष्मक राजा ने सर्वस्व तजकर, राज्य ‘पुत्रा’ को सौंप दिया।।
राजा भीष्मक, रानी प्रभावती, गुरु चरण-रज में रमने लगे।
राजपाट को भूल गये, जब मन में भक्ति ध्रने लगे।।
दान-पुण्य अरु भजन-भक्ति में, सदा लीन वो रहते थे।
गुरुजनों और ऋषि-मुनियों की, सेवा में तत्पर रहते थे।।
रुक्मेश और रुक्मैया भाई, राज्य की सेवा करते थे।
फौज़-फर्रा की देख-रेख में, पूरी दृष्टि रखते थे।।
रुकमदत्त और रुकमवीर थे, महावीर बलवान बड़े।
बड़े-बड़े बलवानों के उन्होंने, क्षण में थे मान हरे।।
रुक्मणी व रूमावती, दोनों बहनें कहलाती थीं।
अवंतिका देवी के पूजन को, नित्य मन्दिर में जाती थीं।।
-4-
बड़े-बड़े महाबली, हो गए महिप भूप।
ग्रंथ, में जिनके, यश-प्रताप गाए हैं।।
प्रियवृत राजा, रथ चक्कर से समुद्र भये।
राजा प्रभु, दान गिरी, कंचन कराये हैं।।
राजा अमरीच-बैन, एकछत्र राज कियो।
सगर दिलीप के, सुयश नैन बिछाये हैं।।
हिरण्याकुश ऐसो भयो, हरि नाम को छुड़ाय दियो।
हिरण्याक्ष फिर पृथ्वी, चटाय कर लाये हैं।।
बाणासुर, सहड्डबाहु, बाली, जामवन्त बलि।
पवन-पुत्रा वीर जो, उखाड़ मेरु लाये हैं।।
परशुराम पंथ भीम, भीष्म सरीखे वीर।
बाणन के मार्ग, स्वर्ग को बनाये हैं।।
रावण राजा ऐसे, बीस-बाँह दस-शीश जाके।
वरुण कुबेर इन्द्र, काल जीत लाये हैं।।
राजा दुर्योध्न की, करत पखेरू छाँय।
ग्यारह अक्षोहणी दल, वुफरुक्षेत्रा में बिताये हैं।।
पर भूमि कहत रही, मैं ना भयी टस से मस।
मुझे संग ले ना गये, विश्व के महान वंश।।
मेरी-मेरी कहकर सब, मुझमें समाये हैं।
लोध्वंश, कश्यप-गोत्र, भोजकट-दरावर भूप।।
क्षत्राणी-वुफल पूर्वजों की, परम्परा के अनूठे रूप।
कहत योगी रमेशचन्द्रानन्द, ये योग-ग्रंथ में लिख दियो।
अमर गाथा भोजकट-दरावर की, वहीं अब छोड़ आये हैं।।
राजा भीष्मक के पाँच-पुत्र रुक्मी, रुक्मैया, रुक्मेश, रुकमदत्त व रुकमवीर थे तथा दो पुत्रियाँ रुक्मणी व रूमावती थीं। रुक्मणी परम-सुन्दर तथा धर्मिक प्रवृत्ति की थी। जब वह सयानी हुई तो एक दिन नारद जी कुन्दनपुरी आये। उन्होंने रुक्मणी का हाथ देखकर कहा कि पुत्री! तेरा विवाह तो द्वारकाधीश महाराज श्रीकृष्ण जी के साथ होगा। तदोपरान्त नारद जी ने द्वारकापुरी में जाकर यदुवंशी महाराज श्रीकृष्ण चन्द्र जी से भीष्मक-पुत्री रुक्मणी के सर्वगुण सम्पन्न की व्याख्या की। फलस्वरूप उनके हृदय में भी रुक्मणी के प्रति ‘प्रेम’ उत्पन्न हो गया। इधर कुछ याचकों ने भी राजा भीष्मक के पास कुन्दनपुरी में जाकर श्रीकृष्ण-चरित्र का यशोगान किया। अपनी अटारी पर बैठी रुक्मणी ने भी यह सब सुना। उसके हृदय में भी श्रीकृष्ण जी के प्रति अगाध्-प्रेम उत्पन्न हो गया। श्रीकृष्ण जी का यशोगान सुनकर रुक्मणी, श्रीकृष्ण जी के ध्यान में ऐसी डूब गई कि वह रात-दिन उन्हीं का स्मरण किया करती थी और देवी माँ अवन्तिका जी की आराधना करके यह वर माँगती थी कि श्रीकृष्ण जी ही मेरे पति हों। उधर राजा भीष्मक का बड़ा पुत्र ‘रुक्मी’ अपनी बहन रुक्मणी का विवाह, चन्देरी के राजा ‘शिशुपाल’ जो कि अत्यन्त बलवान था उसके साथ करना चाहता था। भीष्मक का छोटा पुत्र रुक्मेश इस विवाह को श्रीकृष्ण जी के साथ करना चाहता था। अन्त में युवराज रुक्मी के आग्रहनुसार, रुक्मणी का विवाह शिशुपाल के साथ होना निश्चित हो गया। यह सुनकर रुक्मणी व्याकुल हो गयी। इसका पता जब श्रीकृष्ण जी को चला, तुरन्त उन्होंने अपने दारुक-सारथी द्वारा रथ मंगवाया और कुन्दनपुरी के लिये प्रस्थान कर दिया। पीछे-पीछे बलराम जी भी अपनी सेना सहित चले आये। इधर मगध्-नरेश जरासन्ध् व शिशुपाल भी अपने पचास हजार शूरवीर सैनिकों को लेकर वहाँ पहुंच गये। जब इन्हें श्रीकृष्ण जी व बलराम जी की उपस्थिति का वहाँ पता चला तो इनके होश-हवाश उड़ गये। घमासान युद्ध हुआ। जरासन्ध् व शिशुपाल के ‘शूरवीर’ मुंह ताकते रह गये और श्रीकृष्ण जी उन सबके बीच में से रुक्मणी को इस प्रकार ले गये जैसे सिंह, गीदड़ों के झुँड में निर्भयता-पूर्वक घुसकर, अपना शिकार उठाकर ले जाता है। देखते ही देखते श्रीकृष्ण जी का रथ दूर निकल गया। सभी योद्धागण सावधन होकर उनके पीछे दौड़े। उस समय रुक्मणी को घबराई हुई देखकर श्रीकृष्ण जी ने कहा- ‘‘हे रुक्मणी! तू चिन्तित मत हो। मैं द्वारकापुरी पहुँचकर तेरे साथ शास्त्रानुसार विवाह करूंगा। मैं कोई अनर्थ नहीं कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा ‘हरण’ नहीं कर रहा। मैंने तो अपने एक ‘भक्त की पुकार सुनी है। जब भी मुझे मेरा कोई भी ‘भक्त’ सच्चे मन से याद करता है तो मुझे उसकी भक्ति के वशीभूत होकर उसकी सहायता के लिए आना ही पड़ता है। अपने सच्चे-भक्त की पुकार सुनना ही मेरा परम कर्तव्य है।’’ इतना कहकर श्रीकृष्ण जी ने अपने गले की माला उतारकर, रुक्मणी को पहना दी। इधर श्रीकृष्ण जी ने रुक्मी व उसकी सेना को और उधर बलराम जी ने जरासन्ध् व शिशुपाल तथा उनकी समस्त सेना को तहस-नहस कर दिया।इस हार के बाद राजा भीष्मक के बड़े पुत्र युवराज रुक्मी को इतना दुःख हुआ कि उसने अपनी राजधानी कुन्दनपुरी को सदैव के लिए त्यागने का प्रण कर लिया। उधर पावन-गंगा माँ ने भी आक्रोश किया और कुन्दनपुरीको काट-काटकर अपने प्रवाह में सजल करना आरम्भ कर दिया। अतः राजधनी के नये स्थान की खोज शुरू की गयी। राजा रुक्मी ने कुन्दनपुरी के समीप ही एक ऊंचा, पुराना व अत्यन्त रमणीक ‘टीला’ देखा। इस टीले की शोभा देखते ही बनती थी। यहाँ मनमोहक फूल-फल व प्रकृति का बसेरा था। ऐसा लगता था कि प्रकृति ने अपना सर्वस्व यहाँ पर संजोकर रखा है। राजा इस स्थल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी राजधानी यहाँ स्थानान्तरित कर दी। आगे चलकर इसी स्थान का नाम ‘भोजकट दरावर’ पड़ा। इसी पावन-भूमि पर कालान्तर में स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज, देवी-माँ ‘सोमती’ की भुवन-कोख से बालक ‘हेतराम’ के रूप में अवतरित हुए।