Saturday, May 23, 2009

महाराजा सर्वेश तीर्थ

महाराजा सर्वांग सुन्दर के वन प्रस्थान कर जाने बाद उनके सुत राजा सर्वेश तीर्थ ने राज्य की बागडोर को बड़े धर्यपूर्वक संभाला। इनके राज्य में प्रजा अत्यन्त सुखी और प्रेम-भाव से जीवन व्यतीत करती थी। महाराजा सर्वेश तीर्थ और इनकी महारानी कामिनी तीर्थ गुरु ध्यान में संलग्न रहते थे। ऐसी कुल-परम्परा महान विभूतियों में ही मिलती है। गुरु व ऋषि लोगों के संस्कार भी ऐसी ही आत्माओं के साथ जुड़े रहते हैं। नमो नारायण।
इसी प्रकार गुरु-वचनों पर राजा व रानी दृढ़ रहने लगे। कुछ समय के उपरान्त इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम ‘कर्ण कीर्तिय’ रखा गया। राजा व रानी ने अपने सुत ‘कर्ण कीर्तिय’ का लालन-पालन बड़े ही अच्छे ढंग से किया। कुछ समय राज्य करने के उपरान्त राजा व रानी को वैराग्य उत्पन्‍न हुआ और वैराग्य की आग हृदय पर धधकने लगी। राजा व रानी सोचने लगे कि अखंड तपस्या का फल तो वन में ही होता है और गुरु-वाक्य भी पूरा हो चुका है। इसी सोच विचार में पर्याप्त समय निकल गया। सोचने लगे कि यहाँ रहने पर हमारा राज्य से मोह बना ही रहेगा। महान ‘पद’ तो विरक्‍त होने पर ही प्राप्त होता है। राज्य में शान्ति न मिलने के कारण ही तो हमारे पूर्वज इस राज्य को छोड़कर वनखंडों में चले गये थे। अत: गुरुदेव बालखिल्ले जी को राजदरबार में सादर आमंत्रिात किया गया। राजा व रानी ने गुरुदेव को साष्टाँग प्रणाम किया, चरण धोकर चरणामृत लिया और बोले, हे त्रिकालदर्शी गुरुदेव! आप भी तो कभी राजा ही थे। शान्ति ना मिलने के कारण ही तो आपने राज्य को त्यागा है। बताइये राज्य करके क्या आज तक कोई सुख व शान्ति से रहा है? राजा व रानी दोनों गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। वैराग्य अपनी चरम सीमा को स्पर्श कर गया। आँखों से अश्रुधरा बहने लगी और दोनों बिलख-बिलखकर रोने लगे। बोले, ‘गुरुदेव! हमारी नाव के खिवैया तो आप ही हैं। अत: अब हमें सन्यास दे दीजिये तथा इस राज्य को कुंवर कर्ण कीर्तिय को सौंप दीजिये।’’
यह दृश्य देखकर त्रिकालदर्शी गुरु बालखिल्ले जी भी स्तब्ध् रह गये। गुरुदेव बोले, हे राजन~! वेदानुसार चौथापन तेरा सन्यास में चला गया। तुम जैसे भाग्यशाली कोई विरले ही होते हैं। अब गुरु बालखिल्ले जी ने राजा सर्वेश तीर्थ के सुत कर्ण कीर्तिय को बुलवाया तथा राजसिंहासन पर उसका राजतिलक कर दिया। महाराजा सर्वेश तीर्थ और महारानी कामिनी तीर्थ को विधि‍ विधान पूर्वक सन्यास दे दिया गया। मुनिवर बोले, हे कश्यप-गोत्र राजपूत कुल के राजेश! धन्य है तुम्हारी पूर्वज परम्पराओं को। इसके सामने मैं भी चक्कर खाता हूँ क्योंकि तुम्हारी वाणी में सत है। जो वाणी से कह दिया वह अटल है।
देखो राजन! महाभारत में अर्जुन ने भी प्रतिज्ञा की थी कि मैं आज सूर्यास्त से पूर्व ही ‘जयद्रथ’ को मार डालूँगा अन्यथा स्वयं जलकर मर जाउँगा। उस दिन कृष्ण जी ने अपनी योगमाया से सूर्य को समय से पूर्व ही अस्त कर दिया लेकिन फि‍र अर्जुन की दृढ़-प्रतिज्ञा को देखकर सूर्य को पुन: चमका दिया। सूर्य को देखते ही अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया। ऐसी ही प्रतिज्ञा द्रोपदी ने भी की थी कि जब तक दु:शासन के खून से मैं अपने सिर के बाल न भिगोउँगी तब तक सिर नहीं बाँधूगी। उसी कुरुक्षेत्र युद्ध में बारह वर्ष के बाद द्रोपदी ने दु:शासन के खून में भिगोकर अपने सिर के बाल बाँधे थे। अत: कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर कहाँ रहता है? ईश्वर प्रतिज्ञा में रहता है। जहाँ प्रतिज्ञा नहीं, वहाँ ईश्वर नहीं।

Friday, May 22, 2009

महाराजा जालन्धर

जन्म-जन्म के तपों का, उदय होता जब भान।
राजपाट को तजवाकर, गुरु करावें ज्ञान।।
योग गुरु से सीखकर, कुंडली लहें जगाय।
नभ-मंडल को चीर कर, समाधि‍ लहें चढ़ाय।।
वेद-शास्‍त्र अरु पुराणों में, भरा है अदृभुत ज्ञान।
प्रकांड पंडित तक फंस गये, रहे मूढ़ अज्ञान।।
पूर्वकाल में जालन्धर नाम के राजा कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर राजधानी में राज्य करते थे। उनका जन्म कश्यप-गोत्र के लोध-राजपूत कुल में हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही बड़े धर्मशील व न्यायप्रिय राजा थे। उनकी महारानी का नाम श्रीमती प्राणेश्वरी था। राजा और रानी दोनों ही बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराते थे तथा गरीबों की सहायता करते थे व तीर्थो की यात्रा करते थे। अनेक गरीबों की कन्याओं के शुभ-विवाह इन्होंने कराये थे। कहा जाता है कि महापुरुषों के यहाँ महापुरुष ही जन्म लेते हैं। एक दिन अचानक राजा जालन्धर का माथा, दायीं भुजा और दायीं आँख फड़कने लगी। राजा कुछ सहमे से बैठ गये। यह लक्षण उनके पूर्वकाल की तपस्या के उदय होने का सूचक था। राजमहल में बैठे राजा कुछ सोच ही रहे थे कि रानी ने आकर उनके चरणों में सिर झुकाया और कहने लगीं कि हे प्राणनाथ! आज क्या सोच-विचार कर रहे हो? राजा ने कहा, अहोकष्ट! महाकष्ट! राजपाट और मायामोह के जाल में फँसकर मैंने अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर डाला। हे रानी! मैं राजपाट को न साथ न लाया था और न ही वैभवशाली द्रव्यों को साथ ले जाऊंगा। कितने ही राजे-महाराजे इसको अपना-अपना कहकर चले गये। ये सभी तो इस नश्वर संसार की धरोहर हैं। राजा के ऐसे विचार सुनकर प्राणेश्वरी को भी कुछ भ्रम सा हो गया और वे भी शान्त-भाव से सोचने लगीं कि अहोभाग्य हैं हमारे जो राजा के मन में इस संसार के वैभवशाली द्रव्यों के प्रति घृणा उत्पन्‍न हुई है। अब हमारे पूर्वकाल के संस्कारों का फल उदय होने वाला है। यह सोचने में कुछ ही समय बीता था कि उनके महल में कुल-गुरु श्री श्री 108 श्री बालखिल्ले जी का आगमन हुआ। द्वारपाल ने गुरु महाराज के आने का सन्देश राजा को पहुँचाया। सन्देश सुनते ही राजा व रानी दोनों दौड़े चले आए और गुरुदेव को सादर साष्टाँग प्रणाम किया। उनके चरण धोकर चरणामृत लिया और भोजन आदि से तृप्त कराके उन्हें राजसिंहासन पर विराजमान कर दिया । यह दृश्य ठीक उसी प्रकार दृष्टिगोचर हो रहा था जैसे कि राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में विश्वामित्र जी आ गये हों।
कुछ समय उपरान्त गुरु महाराज ने चारों तरफ निहारकर कहा, हे राजन~! मुझे दृढ़ शंका के साथ यह कहना पड़ रहा है कि तुम्हारे राज्य में आज कुछ अशान्ति है। ऐसा क्यों? स्पष्ट कीजिए?
गुरुदेव के ऐसे शंका भरे शब्दों को सुनकर राजा करबद्ध होकर कहने लगे, हे महायोगेश्वर जी! मैंने देश-देशान्तरों की यात्रा की है, यज्ञ, अनुष्ठान भी कराये हैं, गरीबों की कन्याओं के विवाह-संस्कार भी किये हैं, आपके नाम का सदैव ‘जाप’ भी करता हूँ किन्तु फि‍र भी मेरा मन अशान्त है।
गुरु उवाच, हे राजन~! इस प्रकार के करमो से मानसिक शान्ति नहीं मिलती। वह तो तपस्या व त्याग से ही मिलती है। राजन बोले, हे पूज्य गुरुदेव! मेरा मन इस सारे राज्य को त्यागकर ‘तपस्वी’ बनना चाहता है। अत: कृपा करके मुझे वह मार्ग दर्शा दीजिए जिससे मुझे मानसिक शान्ति प्राप्त हो जाये। राजा के ऐसे भक्‍ति‍ भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी उनके ललाट पर देखने लगे। क्षणोपरान्त गुरुदेव कहने लगे, हे नरश्रेष्ठ! तेरी पूर्वजन्म की तपस्या का उद्यान अब खिलने लगा है। इस तरह का वैराग्य होना तो बड़े भाग्य की बात है। तेरे ललाट को देखकर मैं यह जान गया हूँ कि अब तुझे कोई भी शक्‍ति‍ वनखंडों में जाने से नहीं रोक सकती क्योंकि जब पूर्वजन्म की तपस्या अपने संस्कारों को उदय करती है तो भूमण्डल की सारी शत्तियां सिमटकर चरणों में आ जाती हैं अन्यथा कौन इस वैभवशाली संसार को त्यागने के लिए तैयार है? जो जहाँ पर बँध पड़ा है वहीं पर इस माया ने उसे जकड़ लिया है। हे राजन~! आज तेरे पुण्य कर्म उदय हो रहे हैं। तेरे हाथ में जो योग की रेखा पड़ी है ये उसी का प्रभाव है। इस कौतुक को देखकर महारानी प्राणेश्वरी से न रुका गया और योग की इस अग्नि से व्यावुफल होकर महारानी ने भी अपना मस्तक गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। यह रानी के पतिव्रता होने का प्रमाण था। महारानी कहने लगी कि आप जैसे महायोगेश्वर गुरु हमारे सन्मुख खड़े हैं जो मुत्ति-धर्म के दाता तथा महान शत्तिशाली हैं। ऐसा अवसर हमें कब और कहाँ मिल सकता है? हमारी आकांक्षा इस राजपाट व वैभव से तृप्त हो चुकी है। हे गुरुदेव! यह तो एक दिन मरते समय भी छोड़ना पडेगा। यदि यह सब आपके चरणों में अभी छूट जाये तो इससे अच्छा अवसर और क्या होगा?
राजा और रानी के भत्ति भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी ने सिपाहियों को बुलवाया और समस्त राज्य में ये घोषणा करा दी गयी कि आज से राजा राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे। वह आज से सन्यासी कहलाएँगे तथा वनखंडों में तपस्या हेतु चले जाएँगे। सूचना पाते ही सब देशवासी दौड़ पड़े और खाने-पीने का प्रबन्ध होने लगा।
राजा के पुत्रा ‘सर्वांग सुन्दर’ को भी वहाँ बुलवाया गया। गुरु बालखिल्ले जी ने विधि-विधन पूर्वक राज्य का तिलक कुंवर सर्वांग सुन्दर को कर दिया। राजा व रानी ने बहुत सा धन दान किया और गुरु जी की आज्ञानुसार भगवे वस्त्र पहनकर वनखंडों को प्रस्थान कर दिया। चलते समय गुरुदेव ने कहा कि तुम्हारा जन्म सूर्यवंश के कश्यप-गोत्र में हुआ है अत: तुम्हें अधि‍क उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है।
जब गुरुदेव ने सर्वांग सुन्दर को राजसिंहासन पर बैठाया तो राजकुमार की आँखों से अश्रु-धरा प्रवाहित होने लगी। वायु ने इस समय अपना वेग छोड़ दिया और शान्ति स्थापित की। गंगा ने अपनी अठखेलियों से उछलते जल को अपनी गोद में समेट लिया। पेड़-पौधे जड़वत हो गए। देवगण आकाश से पुष्पों की वर्षा करने लगे। गुरुदेव, राजकुमार को यों समझाने लगे कि हे राजकुमार! घबराता क्यों है? तेरा राज्य तो हम गुरु-लोगों के आधार पर ही चलेगा। तुम जैसे लोगों के सहारे तो ‘धर्म’ पृथ्वी पर टिका है।आज सारी प्रजा की आत्माओं का आशीर्वाद राजा और रानी के साथ लग गया था। इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि स्वयं ‘राम’ वन को जा रहे हैं। सभी अपनी मूकवाणी से कह रहे थे कि तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो और गुरु लोगों की परम्परा का झंडा इस लोक में और परलोक में लहराता रहे। यह धर्म और मर्यादा दोनों की परीक्षा थी। इसी बीच कुलगुरु बालखिल्ले जी अपनी योग-माया से अन्तर्ध्‍यान हो गए और राजकार्य यथोचित प्रकार से चलने लगा। राजन के वनोवास जाने की सूचना पाते ही जन-समूह में हलचल मच गयी। सबके चित्त पर ज्ञान वैराग्य की आग धधकने लगी कि विधता ने भाग्य में क्या लिखा है, कुछ पता नहीं। आज ‘राजा’ वन को जा रहे हैं, राज्य तथा राजकुमार का कोई मोह नहीं किया जैसे सर्प काँचली को त्यागकर चल देता है। राजन के त्याग वैराग्य को देखकर सभी नगरवासियों में खलबली मच गयी। जो भी जिसके हाथ में आया उसने वही दान किया। कोई पैसे बिखेर रहा था, कोई अन्‍न-दान कर रहा था, कोई वस्‍त्र दान कर रहा था। यह दशा जनता की हो गयी थी।

महाराजा सत्यदेव

महाराजा धर्म धुरेन्‍द्र के वन-प्रस्थान कर जाने के उपरान्त उनके पुत्र महाराजा सत्यदेव ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में सँभाली और धर्म का राज्य करने लगे। इनका कर्तव्‍य गुरु-लोगों की सेवा करना, ऋषि-मुनियों को प्रतिदिन भोजन कराना और नित्य-प्रतिदिन नंगे पैर ‘‘गंगा’ नहाने जाना था। जिस दिन इनके दरबार में किसी महर्षि का पदार्पण नहीं होता था तो ये बहुत चिन्तित होते थे और स्वयं भी भोजन नहीं करते थे। कुछ दिन राज्य करने के उपरान्त महाराजा सत्यदेव और उनकी महारानी ‘प्रभात’ को राजसिंहासन की ओर से घृणा होने लगी और उनकी आँखों से अश्रु-धरा बहने लगी। उसी समय परम-पूज्य महायोगेश्वर अगस्त्य मुनि जी का राजदरबार में पदार्पण हुआ। महाराजा सत्यदेव और महारानी प्रभात, योगीराज के चरणों में गिर पड़े। सादर साष्टाँग प्रणाम किया और चरण धोकर चरणामृत लिया तथा योगेश्वर जी को भोजन आदि से तृप्त कराया। तत्पश्चात~ योगीराज जी ने महाराजा सत्यदेव से कहा, बेटा! ‘‘घबराते क्यों हो, इस राजसिंहासन की बागडोर तो मेरे हाथ में है। यह तो बड़े-बड़े सत्यवादी राजाओं की प्राचीन राजधानी रही है। मैं तुम्हें इसका एक वृतान्त सुनाता हूँ।
हे राजन~! प्राचीन काल में यहाँ से लगभग पन्द्रह मील दूर अनूपशहर में चकवेबैन नाम के एक अत्यन्त शत्तिशाली व धर्म-परायण राजा हुए हैं। उसी काल में लंका नगरी में राजा ‘रावण’ का राज्य था। रावण को जब ये अभिमान हुआ कि उसने देश-देशान्तरों के समस्त राजाओं को जीत लिया है तो यह सुनकर उनकी पत्नी रानी-मन्दोदरी ने कहा कि ‘‘महाराज! वर्तमान में जो सबसे शत्तिशाली राजा है उनके पास तो आप अभी तक पहुँचे भी नहीं हैं।’’ रावण बोला, वो कौन सा राजा है? मुझे तुरन्त बताओ, मैं उसे अभी पराजित करूँगा। रानी कहने लगी, महाराज! गंगातट पर अनूपशहर नामक एक नगर है। जहाँ चकवेबैन नाम का एक राजा राज्य करता है। रावण बोला, उसमें क्या शक्‍ति‍ है? रानी मन्दोदरी बोली, महाराज! क्या आप उनकी शक्‍ति‍ यही से देखना चाहते हैं? यदि आपकी ऐसी इच्छा है तो देखिए। मन्दोदरी ने मुटठी-भर अनाज के दाने ‘कबूतरों’ के सामने बिखेर दिये और कहा कि तुम्हें राजा चकवेबैन की दुहाई है यदि तुमने एक भी अनाज का दाना चुगा। सारे कबूतर देखते रहे लेकिन किसी ने एक दाना तक भी नहीं चुगा। रानी मन्दोदरी ने अनाज की फि‍र दूसरी मुटठी बिखेरी और कहा कि तुम्हें राजा रावण की दुहाई है यदि तुमने एक भी दाना चुगा। लेकिन कबूतर तुरन्त ही सारे अनाज को चुग गए। अब रावण ने अपना मंत्री राजा चकवेबैन के यहाँ युद्ध के लिए भेजा और कहा कि चकवेबैन युद्ध के लिए तुरन्त तैयार हो जाए। राजा चकवेबैन ने रावण के मंत्री से कहा कि रावण हमसे क्या युद्ध करेगा? उस समय राजा चकवेबैन पंखा बुन रहे थे। राजा चकवेबैन ने लंका के समान, बालू की एक बुर्जी बनाई और पंखे की डंडी से उसे गिरा दिया और रावण के मंत्री से कह दिया कि जब रावण इस बुर्जी को पूरा कर ले तभी वह मेरे पास युद्ध के लिए आ जाये। रावण के मंत्री ने लंका में जाकर देखा कि वास्तव में लंका की बुर्जी टूटी पड़ी थी। अब रावण प्रतिदिन उस बुर्जी को चिनवाता था लेकिन वह प्रतिदिन ही गिर जाती थी। रावण ने बहुत कोशिश की लेकिन वह बुर्जी पूरी न हो सकी। अन्ततोगत्वा रावण हार मानकर अनूपशहर के राजा चकवेबैन के पास पहुँचा और अपनी भूल स्वीकार की तथा क्षमा-याचना की। तब राजा चकवेबैन ने बालूरेत की एक बुर्जी बनाई और कहा कि रावण! तुम्हारी बुर्जी बन चुकी है। रावण ने राजा चकवेबैन को प्रणाम किया तथा लंका लौटने की आज्ञा मांगी। रावण ने लंका में आकर देखा तो बुर्जी बनी खड़ी थी।
अब अगस्त्य मुनि राजा सत्यदेव से बोले कि बेटा! तू घबराता क्यों है? राजपाट को हम सँभालेंगे। तुझे तो हमने नाम-मात्र को ही राजसिंहासन पर बैठाया है और बेटा! गहस्थ आश्रम में रहते हुए भी ‘मनुष्य’ महान सन्त हो सकता है। कुछ समय पश्चात महाराजा सत्यदेव को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम इन्होंने ‘जालन्धर’ रखा। महाराजा सत्यदेव को कुछ समय राज्य करने के उपरान्त राज्य से घृणा उत्पन्‍न होने लगी। सोचेने लगे कि यह संसार तो नश्वर है। इसमें कोई भी वस्तु स्थाई नहीं है। यह तो आवागमन का एक चक्र है। हमारे कितने ही पूर्वज इस पृथ्वी पर जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त हुए हैं लेकिन कोई भी अपने साथ ना कुछ लाया और ना ही ले गया। अत: उनका मन तपस्या की ओर अग्रसित होने लगा। उन्होंने अपने कुलगुरु अगस्त्य मुनि जी को अपनी मनोस्थिति बतलायी। योगीराज ठगे से रह गये और बोले, बेटा! ये तेरी पूर्वकाल की तपस्या उदय हो रही है। अब राजा सत्यदेव ने गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपने राजसिंहासन का तिलक, गुरु महाराज के समक्ष अपने सुत ‘जालन्धर’ को कर दिया और महाराजा सत्यदेव और महारानी प्रभात, तपस्या करने हेतु वनों के लिए प्रस्थान कर गये।

Thursday, May 21, 2009

महाराजा धर्म धुरेन्द्र

लोधवंश कश्यप-गोत्र के अध्ष्ठिाता एवं एकछत्र महाराजा धर्म धुरेन्द्र, राजधनी भोजकट दरावर के सम्राट थे। उनके राज्य में चतुर्दिक शान्ति व्याप्त थी। वे अपनी प्रजा का सन्तानवत् पालन करते थे। धन, वस्त्र, द्रव्य, भवन व गऊ आदि दान करते थे। उन्होंने अनेक अविवाहित निर्धन कन्याओं का कन्यादान करके अपनी निर्धन-प्रजा को प्रोत्साहन प्रदान किया था। राजा की प्रवृत्ति अत्यधि‍क ‘धार्मिक’ थी।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र ‘धर्म’ का राज्य करते थे। उनके राज्य में समस्त जनता महासुख की भागी थी। राजा को प्रजा ईश्वर-तुल्य मानती थी क्योंकि वो गरीबों की देख-रेख में बड़े चतुर तथा सत्य-प्रतिज्ञावान थे। जनता उनको ईश्वर करके पूजती थी। परन्तु राजा ‘सन्तान’ के अभाव में अशान्त रहते थे। उनकी पत्नी ‘माया सुन्दरी’ एक पतिव्रता रानी थी। वह राजन को प्राणों से भी प्यारी थी। ऋषि-मुनियों की सेवा में वह सदा तत्पर रहती थी।
सन्तान के अभाव में राजा व रानी, ऋषियों के दर्शन हेतु भ्रमण करने लगे। घूमते-घूमते वे एक योगेश्वर जी के आश्रम में पहुंच गए। योगी जी के आश्रम को देखकर राजन आश्चर्यचकित रह गये। ‘योगी’ के ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और त्याग की अथाह शक्ति देखकर, राजन को कुछ भक्ति-रस का नशा सा छा गया। राजा व रानी ने फल-फूल भेंटकर योगेश्वर जी को प्रणाम किया तथा शान्त-चित्त खड़े रहे। योगीराज ने उनकी तरफ देखा तो उनकी श्रद़धा व भक्ति देखकर उन्हें बैठने का संकेत किया और कहने लगे, कहिए राजन्! कहाँ से आगमन हो रहा है? राजा करबद होकर बोले, ‘‘हे योगेश्वर जी! मैं आपका नाम सुनकर आपकी चरण-रज में उपस्थित हुआ हूँ। हम भोजकट दरावर कुन्दनपुरी राजधनी के रहने वाले हैं। धर्म धुरेन्द्र मेरा नाम है तथा रानी का नाम माया सुन्दरी है।’’ मुनिवर बोले, ‘‘राजन्! आप कुछ अशान्त से प्रतीत होते हो।’’ राजा कहने लगे, ‘‘ऋषिराज! अशान्ति का तो ऐसा कोई कारण नहीं है परन्तु हमारे राज्य की बागडोर हमारे बाद कौन सँभालेगा? ना जाने वह कैसा राजा होगा? क्योंकि महाराज! हमारे कोई राजकुमार नहीं है।’’ योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे नरेश! तुम्हारे साथ में तो ऋषि-मुनियों का आशीर्वाद लगा हुआ है। राजन्! तेरा तो उच्च-कुल है। इसमें बड़े-बड़े योगियों व धर्मात्माओं का जन्म हुआ है। हे राजन्! धर्मात्मा होने के नाते, मैं अब तुम्हें समझाता हूँ। यदि मेरे मार्गदर्शन के अनुसार तुमने साधन नहीं किए तो देख लेना तुम्हारे यहाँ असत्यवादी बच्चा होगा।’’
‘‘देखो राजन्! स्यालकोट में राजा सिंहवटी ने गुरु गोरखनाथ सहित उनके चौदह सौ चेलों को संगीनों के पहरे में अपने बाग में रखकर, चौबीस वर्ष तक उनकी सेवा की, तब कहीं जाकर ‘पूरनमल’ जैसा सती व यती पुत्र, रानी के गर्भ से पैदा हुआ जो अपना व अपने कुल का नाम आकाश में लहरा गया तथा सदा के लिए मोक्षपद को प्राप्त हो गया।’’ इतना सुनकर राजा व रानी ने रोते हुए अपने मुकुट, योगी जी के चरणों में रख दिए।
राजवंश को देखकर, राजा हो भ्रमन्त।
सोचा मरने के बाद, कौन करे राजन्त।।
ये बातें सोचकर, जायें ऋषियों के पास।
पूर्वजन्म के तपों से, गुरु-शरण मिल जात।।
राजपाट अर्पित किया, रघुकुल अपनी रीत।
करबद्ध हो सम्मुख खड़े, तपने चले प्रीत।।
वचन सुनत राजेश के, मुग्ध् हुए ऋषिराज।
राज चले कुल-वंश से, ये निश्चय कर साज।।
तत्पश्चात् योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे राजन्! तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति ने तो मेरे शासन को भी हिला दिया। अब तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
‘‘हे नरेश! तुमको और रानी को तीन वर्ष तक पृथ्वी-तल पर सोना होगा। कन्दमूल फल का खाना होगा। राजवंश का त्याग करना होगा। परिश्रम से अर्जित ‘अन्‍न’ ग्रहण करना होगा। पैरों तथा अँगूठे के बल, तपस्या करनी होगी। ब्रह्मचर्य से रहना होगा। नित्य प्रति गंगा-स्नान करना होगा। हे राजन्! तुम्हारी तपस्या जब पूर्ण होती जायेगी तो भक्ति में शक्ति बढ़ती जायेगी। जब तपस्या की सीढ़ियाँ निकट आती जायेंगी तो जो सर्वशक्तिमान् ‘ईश्वर’ है उसका सिंहासन हिलने लगेगा। तभी समझ लेना कि तुम्हारी तपस्या ‘पूर्ण’ हो चुकी है।
‘‘हे राजन्! अनूपशहर से लेकर पूठपुरी-पुष्पावती तक के वीरान वनखंडों में गुप्त-रूप से कालगुँजार योगी विचरते हैं। किसी भाग्यशाली को ही उनके दर्शन होते हैं। यह क्रम, सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। जब किसी को उनके दर्शन होते हैं तो बड़े भाग्य व भयानक रूप से होते हैं। देखो! अतीत में अनूपशहर में सत्यवादी राजा चकवेबैन हुए हैं। कुन्दनपुरी में सीता-अवतार रुक्मणी हुई हैं तथा पूठपुरी-पुष्पावती में अटल प्रतिज्ञावान ध्र्रुव-भक्‍त का जन्म हुआ है। वैसे तो योगीजन हर जगह घूमते रहे हैं जहाँ इनका मन चाहता है, परन्तु अधि‍कतर उपरोक्त कहे गए क्षेत्र में ही विचरते हैं। इन कालगुँजार योगियों के दर्शन, गंगा से निकलते हुए अथवा अपनी आँतों को धेते हुए या किसी सिंह की हड्डियाँ चाटते हुए या मृत-पशुओं को खाते हुए होते हैं। ये मैं तुम्हें उनकी शक्ति समझा रहा हूँ। कभी बालक के रूप में स्नान करते हुए मिलते हैं। यदि वे तुम्हें प्रसाद दे दें तो समझ लेना कि तुम ‘पुत्रेश-यज्ञ’ के अधि‍कारी हो गये हो। इसके बाद राजा व रानी, योगी जी के चरणों में सादर साष्टाँग-प्रणाम करके तथा आज्ञा लेकर अपने राजमहल को वापिस चले आए।
उसी समय से राजा व रानी ने अपने आपको योगी के कथनानुसार इतना बांध् दिया, जिस प्रकार सिंह को कटघरे में बन्द कर देते हैं। जैसे-जैसे राजन भक्ति में आगे बढ़ते गए, वैसे-वैसे ही उनकी योग-शक्ति बढ़ती चली गयी। योगी के वचनों का समय भी समीप आता गया तथा ईश्वर का सिंहासन भी हिलने लगा। एक दिन राजा व रानी ओघट-घाट पर नहाने जा रहे थे। ईश्वर का विधान अनुकूल था। क्या देखते हैं कि वही कालगुँजार योगी एक मरे हुए मृग में से माँस निकाल-निकालकर खा रहे हैं। उन्हें देखकर दोनों की खुशी का पारावार ना रहा। राजा व रानी दोनों करबद्ध होकर एक टाँग से खड़े हो गये। क्षणोपरान्त जब योगी जी ने उनकी तरफ देखा तो उन्हें संकेत किया। दोनों बड़े उत्साह के साथ भागते हुए उनकी ओर गये। योगी जी ने उन्हें मृग के शरीर में से माँस का एक बकुटा भरकर दे दिया। तत्पश्चात् दोनों ने योगी जी को प्रणाम किया और फि‍र गंगा-स्नान को चले गये। शक्तिशाली महाराज जी के दिए हुए प्रसाद को जब उन्होंने गंगाजी के घाट पर खोलकर देखा तो उसमें इतना स्वादिष्ट-भोजन था कि वैसा ना कभी खाया न खाने की आशा की। राजा व रानी ‘प्रसाद’ को खाकर अपने महल को चले आए। दोनों सदैव ‘गुरु’ के ध्यान में ही मग्न रहते थे। कुछ समय पश्चात समयानुसार तपस्या व गुरु-आशीर्वाद के प्रताप से उन्हें ‘सत्यदेव’ नाम का सुत प्राप्त हुआ।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र साधरण राजा नहीं थे। वे दृढ़ प्रतिज्ञावान थे। अपने वचनों से कदापि पीछे हटने वाले नहीं थे। उनके गुरु का नाम ‘झिलमिला तीर्थ’ था। कुन्दनपुरी में फाल्गुन मास में अम्बकेश्वर मन्दिर पर मेला लगता है तथा काँवर चढ़ते हैं। इसी पर्व पर एक समय का वृतान्त है कि सभी नगर-वासी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। खेतों में पका हुआ अनाज खड़ा था। यकायक राजा धर्म धुरेन्द्र ने बादल की ओर देखा। समस्त ‘बादल’ ओलों से भरा हुआ था। राजा ने सोचा कि यदि वर्षा तथा ओलों से फसल नष्ट हो गयी तो मेरी प्रजा क्या खाएगी? तुरन्त उन्होंने गुरु-मंत्र का उचित-रूप से स्मरण किया तथा ‘गुरु’ का ध्यान किया। उन्होंने आकाश में भागते हुए समस्त बादलों को एकत्रित करके गंगा जी की रेती में गिरा दिया। राजा के इस कौतुक को देखकर प्रजा अत्यन्त प्रभावित हुई इस घटना के पश्चात् प्रजा, राजा को ईश्वर-तुल्य मानने लगी।
देख सुख-सम्पत्ति राजपाट, राजन को होत वैराग्य।
पूर्वजन्म के तपों से, राजन राजपाट करते हैं त्याग।।
जब राजन को पूर्ण सुख प्राप्त हो चुका तो राज्य करते-करते पूर्वजन्म की तपस्या ने उनके चित्त में ऊफान लिया। राजा कहने लगे कि अहोकष्ट! महाकष्ट! राज्य-सुख के लिए मैंने अपने वंश को चलाने हेतु घोर तपस्या की। गुरु महाराज ने वो भी पूर्ण की। अब हमें क्या करना है? जब हमारे पूर्वज भी इस राजपाट को अपने साथ नहीं ले गये तो क्या ये हमारे साथ जायेगा? रानी ने राजा को वैराग्य से भरा हुआ देखकर कहा कि, ‘‘प्रभु! आप समस्त रात्रि क्यों बैठे रहते हो?’’ बहुत आग्रह करने पर राजा बोले, ‘‘रानी! राज्य से अब मेरा मन विरक्त हो चुका है। राज्य-त्याग के लिए अब मेरा मन व्याकुल है।’’ इतनी बात सुनते ही रानी, राजा के पैरों में गिर पड़ी। कहने लगी, ‘‘प्रभु! ये तो आपने मोक्षपदगामी बात कही है। सन्तान तथा राजपाट से किसका नाम चला है। हे राजन्! यदि आप वनखण्डों में मुझे नहीं ले गए तो मैं आपके जाते ही सती हो जाऊंगी। मैं पतिव्रता नारी हूँ।’’ रानी की इतनी बात सुनकर राजा को महा-सन्तुष्टि हुई राजन सोचने लगे कि मैंने तो केवल राज्य-त्याग का ही संकल्प किया है परन्तु रानी का वैराग्य तो मुझसे भी बढ़कर निकला। फि‍र राजन सोचने लगे कि जो राजा बनकर राज्य में ही रहते हैं तथा राज्य में रहकर ही मर जाते हैं, वे राजा नर्कगामी होते हैं। अर्थात् उन्हें स्वर्ग नहीं मिलता। राज्य तो एक नर्क के समान है।
अतः राजा व रानी ने मंत्रणा करके अपने गुरुदेव श्री झिलमिला तीर्थ को सादर आमंत्रित किया। दोनों ने सादर साष्टांग-प्रणाम करके गुरुदेव को राजसिंहासन पर आसीन किया। गुरु महाराज को सप्रेम भोजन कराके राजा व रानी कहने लगे, ‘‘हे गुरुदेव! अब हमारा ‘मन’ राज्य से विरक्त हो चुका है। अब हम वनखण्डों में तपस्या हेतु जाना चाहते हैं।’’ राजा व रानी की बात सुनकर गुरु महाराज शान्त-चित्त बैठे रहे। कुछ देर बाद गुरुदेव बोले कि ‘‘तुम्हारी पूर्वजन्म का तपस्या की फूल खिल चुका है। ये जो तुमने सोचा है, ये तो बड़े सौभाग्य की बात है। अब आप संस्कार-विधि‍ से अपने सुत को बुलाकर उसका राजतिलक कराओ। गुरुदेव के आदेशानुसार राजा ने अपने सुत ‘सत्यदेव’ को बुलाकर उसका राजतिलक करा दिया तथा उसे राजसिंहासन पर पदासीन करके राजा व रानी मनोवांछित दान करने लगे। बहुत द्रव्य लुटाया गया । गरीबों को वस्त्र तथा अन्‍न दिया गया। दान आदि से निवृत्त होकर राजा व रानी ने भगवे वस्त्र धारण किये। इसके बाद राजा व रानी ने गुरु महाराज के चरणों में मस्तक झुकाया तथा गुरु से आशीर्वाद लेकर कहा कि ‘‘महाराज! इस भेष की गरिमा व लाज रखने की हमें शक्ति प्रदान करें। अब हम कभी भोजकट-दरावर कुन्दनपुरी लौटकर नहीं आएँगे। ये हमारी सूर्यकुल की अटल-प्रतिज्ञा है।’’ इतना कहकर राजा व रानी ने वनखण्डों के लिये सहर्ष प्रस्थान किया।