Saturday, May 23, 2009

महाराजा सर्वेश तीर्थ

महाराजा सर्वांग सुन्दर के वन प्रस्थान कर जाने बाद उनके सुत राजा सर्वेश तीर्थ ने राज्य की बागडोर को बड़े धर्यपूर्वक संभाला। इनके राज्य में प्रजा अत्यन्त सुखी और प्रेम-भाव से जीवन व्यतीत करती थी। महाराजा सर्वेश तीर्थ और इनकी महारानी कामिनी तीर्थ गुरु ध्यान में संलग्न रहते थे। ऐसी कुल-परम्परा महान विभूतियों में ही मिलती है। गुरु व ऋषि लोगों के संस्कार भी ऐसी ही आत्माओं के साथ जुड़े रहते हैं। नमो नारायण।
इसी प्रकार गुरु-वचनों पर राजा व रानी दृढ़ रहने लगे। कुछ समय के उपरान्त इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम ‘कर्ण कीर्तिय’ रखा गया। राजा व रानी ने अपने सुत ‘कर्ण कीर्तिय’ का लालन-पालन बड़े ही अच्छे ढंग से किया। कुछ समय राज्य करने के उपरान्त राजा व रानी को वैराग्य उत्पन्‍न हुआ और वैराग्य की आग हृदय पर धधकने लगी। राजा व रानी सोचने लगे कि अखंड तपस्या का फल तो वन में ही होता है और गुरु-वाक्य भी पूरा हो चुका है। इसी सोच विचार में पर्याप्त समय निकल गया। सोचने लगे कि यहाँ रहने पर हमारा राज्य से मोह बना ही रहेगा। महान ‘पद’ तो विरक्‍त होने पर ही प्राप्त होता है। राज्य में शान्ति न मिलने के कारण ही तो हमारे पूर्वज इस राज्य को छोड़कर वनखंडों में चले गये थे। अत: गुरुदेव बालखिल्ले जी को राजदरबार में सादर आमंत्रिात किया गया। राजा व रानी ने गुरुदेव को साष्टाँग प्रणाम किया, चरण धोकर चरणामृत लिया और बोले, हे त्रिकालदर्शी गुरुदेव! आप भी तो कभी राजा ही थे। शान्ति ना मिलने के कारण ही तो आपने राज्य को त्यागा है। बताइये राज्य करके क्या आज तक कोई सुख व शान्ति से रहा है? राजा व रानी दोनों गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। वैराग्य अपनी चरम सीमा को स्पर्श कर गया। आँखों से अश्रुधरा बहने लगी और दोनों बिलख-बिलखकर रोने लगे। बोले, ‘गुरुदेव! हमारी नाव के खिवैया तो आप ही हैं। अत: अब हमें सन्यास दे दीजिये तथा इस राज्य को कुंवर कर्ण कीर्तिय को सौंप दीजिये।’’
यह दृश्य देखकर त्रिकालदर्शी गुरु बालखिल्ले जी भी स्तब्ध् रह गये। गुरुदेव बोले, हे राजन~! वेदानुसार चौथापन तेरा सन्यास में चला गया। तुम जैसे भाग्यशाली कोई विरले ही होते हैं। अब गुरु बालखिल्ले जी ने राजा सर्वेश तीर्थ के सुत कर्ण कीर्तिय को बुलवाया तथा राजसिंहासन पर उसका राजतिलक कर दिया। महाराजा सर्वेश तीर्थ और महारानी कामिनी तीर्थ को विधि‍ विधान पूर्वक सन्यास दे दिया गया। मुनिवर बोले, हे कश्यप-गोत्र राजपूत कुल के राजेश! धन्य है तुम्हारी पूर्वज परम्पराओं को। इसके सामने मैं भी चक्कर खाता हूँ क्योंकि तुम्हारी वाणी में सत है। जो वाणी से कह दिया वह अटल है।
देखो राजन! महाभारत में अर्जुन ने भी प्रतिज्ञा की थी कि मैं आज सूर्यास्त से पूर्व ही ‘जयद्रथ’ को मार डालूँगा अन्यथा स्वयं जलकर मर जाउँगा। उस दिन कृष्ण जी ने अपनी योगमाया से सूर्य को समय से पूर्व ही अस्त कर दिया लेकिन फि‍र अर्जुन की दृढ़-प्रतिज्ञा को देखकर सूर्य को पुन: चमका दिया। सूर्य को देखते ही अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया। ऐसी ही प्रतिज्ञा द्रोपदी ने भी की थी कि जब तक दु:शासन के खून से मैं अपने सिर के बाल न भिगोउँगी तब तक सिर नहीं बाँधूगी। उसी कुरुक्षेत्र युद्ध में बारह वर्ष के बाद द्रोपदी ने दु:शासन के खून में भिगोकर अपने सिर के बाल बाँधे थे। अत: कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर कहाँ रहता है? ईश्वर प्रतिज्ञा में रहता है। जहाँ प्रतिज्ञा नहीं, वहाँ ईश्वर नहीं।

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