Monday, April 27, 2009

महाराजा श्वेत

महाप्रतापी, महाबलशाली, महातपधरी, प्रतिभाशाली, तपोवन धम, महानगरी भोजकट-दरावर के प्रथम राज्य-संचालक महाराजा श्वेत, लोध्वंश कश्यप-गोत्रा के ज्वलन्त सूर्य थे। उनकी कीर्ति-गाथा को देवर्षि नारद-मुनि के मुखारविन्द से श्रवण करके स्वयं स्वर्ग-सम्राट अर्थात् देवराज इन्द्र के हृदय में भी ईष्र्या और द्वेष की ‘अग्नि’ धधक उठी थी। जिनकी सत्यनिष्ठा एवम् कर्तव्य-परायणता और दृढ़-संकल्प शक्ति को देखकर समूचा देव-समाज भी आश्चर्य-चकित था।ऐसे युग-पुरुष, महामानव, महाराजाधिराज महानगरी भोजकट-दरावर जनप्रिय, लोकपूज्य व सत्गुरु स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज के वंशाधिकारी एवं कुल-पूर्वज थे। परम-पूज्य महाराज श्वेत के चरण कमलों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम। उनकी प्रिय महानगरी भोजकट-दरावर के कण-कण की सहत्रा बार चरण-वन्दना जिसके बहुमूल्य गर्भ से ऐसे दानवीर, त्यागी, तपस्वी एवं सत्यवादी राजाओं ने बार-बार जन्म लेकर लोधवंश कश्यप-गोत्रा की कीर्ति-गाथा को अमृत्व प्रदान किया है।वैसे तो समस्त सृष्टि ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश की धरोहर है। सात लोक, चौदह भुवन और दसों दिशाओं में उस सर्व-शत्तिमान परम-पिता परमेश्वर की ही लीला व्याप्त है। स्वर्गलोक, मृत्युलोक, बैकुंठ, परम-धाम, आकाश, पाताल, नर्कलोक सभी अपने-अपने कर्मों के अनुसार ‘जीवात्मा’ को प्राप्त होते हैं, विशेषकर स्वर्गलोक जो कि मृत्युलोक तथा नर्कलोक के मध्य स्थित है। मृत्युलोक में मानव अपने कर्मों के अनुसार अपनी अग्रिम-योनि निर्धारित करता है। सत्य, धरम और न्याय का पालन करने वाला ‘मनुष्य’ जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर तथा लख-चैरासी के भंवर-जाल को तोड़कर ‘स्वर्ग’ का अधिकारी बनता है। इसके विपरीत पापी, अधर्मी तथा अत्याचारी घोर-नर्क का भागी होता है। मनुष्य, देव और दानव अर्थात् इन दोनों के बीच मानव-प्रवृत्ति वाला प्राणी है जिसमें सात्विक, तामसिक व राजसिक अर्थात् तीनों ही गुण विद्यमान होते हैं।एक दिन राजा श्वेत अपने राजसिंहासन पर विराजमान होकर अपने कर्मचारियों को गोपनीय सन्देश दे रहे थे कि ‘‘वे अपने राज्य में सत्य, अहिंसा एवं न्याय की स्थापना हेतु घोर-परिश्रम करें। इस कार्य के प्रचार व परिपालन हेतु यदि उन्हें अपने प्राणों की भी आहुति देनी पड़े तो इस बलिदान के लिए सभी को तत्पर रहना चाहिए। ये मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। मेरे राज्य में कोई भूखा, नंगा, पीड़ित अथवा असहाय नहीं रहना चाहिए।इस आदेश की परीक्षा के लिए मैं स्वयं अपना भेष बदलकर, दिन अथवा रात्रि में अपने राज्य का भ्रमण करुँगा। यदि मेरा कोई राज्य-कर्मचारी अपने कर्तव्य पालन में विमुख प्रमाणित हुआ तो मैं अपने राज्य से सपरिवार उसका निष्कासन कर दूँगा ताकि मेरे राज्य में ऐसा कोई कर्मचारी जन्म ही न ले जो प्रजा के साथ विश्वासघात करे। अन्याय और दुराचार को मेरे राज्य में कोई शरण नहीं मिलेगी। यही हमारा राज्यादेश है और हम इसका अक्षरशः पालन चाहते हैं।’’इस बीच एक द्वारपाल ने आकर महाराज श्वेत को सूचना दी कि एक महर्षि भगवे-वेश में आपसे भेंट करने की अभिलाषा से द्वार पर उपस्थित हैं। महर्षि का नाम सुनते ही राजा श्वेत नंगे-पैर द्वार की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने ऋषि-महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और उन्हें आदर-सहित राजमहल में राजसिंहासन पर विराजित किया। राजा श्वेत का इतना अधिक आदर-सत्कार देखकर, महर्षि हर्षोल्लास से फूले नहीं समाये और गद्गद् होकर कहने लगे, ‘हे राजन्! मैं तुम्हारी धर्मिक प्रवृत्ति और साधू-भक्ति भाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैंने इस राज्य की प्रजा में घोर सुख-शान्ति का अनुभव किया है। तेरी प्रजा, तेरी राज्य-प्रणाली और प्रशासन से बहुत सन्तुष्ट है। तेरा जीवन सफल है राजन्। अब मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ?..... तेरा कुलगुरु कौन है जिसने तुझे इतनी उँची शिक्षा दी है?’’ कुलगुरु...। चैंक पड़े राजा श्वेत। गहरे असमंजस में डूबकर महाराजा श्वेत बोले, ‘‘हे महर्षि! मेरा कोई ‘कुलगुरु’ नहीं है और फिर राज्य-कार्य संचालन के लिए किसी ‘कुलगुरु’ की क्या आवश्यकता है? मैंने तो आज तक इस विषय पर विचार भी नहीं किया और रहा उच्च-शिक्षा व सफल राजनीति का प्रश्न, सो ये सब तो महाराज मेरे पूर्वजन्म के संस्कारों की ही देन है। इस जन्म में जो कार्य होगा, उसका फल अगले जन्म में भोगना होगा। हमारे कुल-वंश की परम्परा इसी भाँति सत्मार्ग पर चलती रहती है। मैंने अपने पूर्वजों की परम्परा ही देखी है। मैंने और किसी चीज़ का ध्यान ही नहीं किया कि गुरु-शक्ति भी कुछ होती है।’’महर्षि क्षुब्ध् होकर बोले, ‘‘तेरी अंहकार-युक्त वाणी ने तेरे समस्त सत्कर्मों पर ही पानी फेर दिया। तू नहीं जानता कि ‘कुलगुरु’ की क्या महत्ता है? अरे मूर्ख! गुरु के परामर्श बिना तो राज्य अधूरा है। अतः तेरा उद्धार असम्भव है। अज्ञानता के गहन भंवर में फंसे हुए मानव को ‘गुरु’ ही अपनी शक्ति से पार लगाता है। गुरु के आशीर्वाद बिना तो भक्ति व शक्ति दोनों ही अर्थहीन हैं। आज तूने मेरे समक्ष ये कहा कि मैं ‘कुलगुरु’ की आवश्यकता ही नहीं समझता। जा! हम तुझे यह श्राप देते हैं कि तू अपने इस जीवन के सत्कर्मों के कारण स्वर्ग का भागी होकर भी गुरु-संसर्ग के लिए तड़पता रहेगा। गुरु-आशीर्वाद के अभाव में तेरा उद्धार ‘स्वर्ग’ में भी सम्भव नहीं है। याद करो राजन्! तुम्हें जो राजतिलक कराया गया था वो तुम्हारे ‘गुरु’ ने ही तो कराया था, तुम्हें तब भी यह ज्ञान नहीं हुआ। लगता है अंहकारवश माया के सींग जम आये हैं।’’ राजा श्वेत बोले, ‘‘महाराज! मुझे क्षमा करें।’’ जैसे ही महाराज श्वेत महर्षि के चरणों में क्षमा माँगने के लिए झुके, अचानक राजदरबार में क्षण भर के लिए सघन-कोहरा सा छा गया और जब प्रकाश हुआ तो देखा ‘महर्षि’ अन्तध्र्यान हो चुके थे।इस घटना के पश्चात् महाराज श्वेत के मन में स्वतः वैराग्य-भावना जागृत हो उठी। उन्हें राजपाट से घृणा उत्पन्न हो गयी। यहाँ तक कि समस्त सुख, सम्पत्ति और वैभव से परिपूर्ण महलों में उनका दम सा घुटने लगा। महर्षि की भविष्यवाणी उनके हृदय को कचोटने लगी तथा उनके मन-मस्तिष्क को झकझोरने लगी कि µ ‘‘स्वर्ग का भागी होने पर भी गुरु-सम्पर्क का तुझे अभाव तड़पाता रहेगा।’’ वे सोचने लगे कि हे परम-पिता परमेश्वर! मैं ऐसे किस आध्यात्मिक-दण्ड का भागी बनूँगा कि स्वर्ग प्राप्त होने पर भी मेरा उद्धार नहीं होगा। ये कैसा श्राप है भगवन्? यही सोच-सोचकर महाराजा श्वेत और महारानी धरम का मन विचलित हो उठा। अन्त में जब सब कुछ सहन शक्ति से परे हो गया तो तत्काल राजा ने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि हम आज ही सूर्य छिपने से पहले, अपने पुत्रा ‘कुंवर धर्म धुरेन्द्र’ का राजतिलक करना चाहते हैं। शुभ घड़ी व तिथि-मुहूर्त में कुंवर धरम धुरेन्द्र का राजतिलक करके महाराजा श्वेत तपस्या करने हेतु जंगलों में प्रस्थान कर गये।अब कन्दमूल फल ही उनका आहार था। तत्पश्चात् वे घोर तपस्या में इतने लीन हुए कि निराहारी रहकर वे अपनी साध्ना में संलग्न रहने लगे। अन्त में जब उन्होंने अपना शरीर त्याग तो उन्हें लेने के लिए भगवान का विमान पहुँचा। विमान उनको लेकर स्वर्ग चला गया। स्वर्ग में जाकर उनको बहुत सुन्दर महल रहने को मिले, अनेक दास-दासियां सेवा को मिलीं तथा पहनने के लिए रत्न-जड़ित वस्त्रा प्राप्त हुए। अनेकों अप्सराएँ उन्हें पत्नी के रूप में भोगने को मिलीं परन्तु खाने को कुछ नहीं मिला। अतः ‘राजा श्वेत’ क्षुध से पीड़ित होकर चिल्लाये कि मुझे भोजन दो! मेरा सब कुछ ले लो। दास-दासियों ने कहा, ‘‘महाराज! महलों में आपके लिए सभी सुख उपलब्ध हैं परन्तु ‘भोजन’ के नाम पर तो एक फल भी उपलब्ध नहीं है।’’ राजा श्वेत भूख से तड़पते-बिलखते, भगवान विष्णु व ब्रह्मा आदि के पास गये उनसे भोजन की याचना की। उन्हें उत्तर मिला कि, ‘‘राजन! तुमने जो दान किया है वह तुम्हारे स्वर्ग आने से पूर्व ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो चुका है। जो दान नहीं किया, वह कहाँ से आए?’’ राजा श्वेत हाथ जोड़कर दीनवाणी में बोले, ‘‘हे प्रभु! हे जगदीश्वर! ये सब सुख ले लो और मुझे भोजन दे दो।’’ इस पर भगवान-विष्णु बोले, ‘ये नियम के विरुद्ध है। राजन्! जो कुछ दान दिया जाता है वही आगे चलकर मिलता है। तुमने कभी किसी जीवन को भोजन-दान नहीं किया, कभी किसी कुत्ते तक को रोटी का टुकड़ा नहीं डाला। केवल अपने शरीर को सुन्दर-सुन्दर राजसी वस्त्रों से सजाया, सँवारा व स्वादिष्ट-भोजन व मेवा-मिष्ठानों से पाला पोसा। अतः अब तो ये ही हो सकता है कि तुम्हारा मृतक-शरीर जो कि आज भी उसी वन में तालाब के किनारे पड़ा है, उसी को आप जाकर खा लो और अपनी भूख-पिपासा शान्त करके फिर स्वर्ग में वापिस आकर अपने दान किये हुए भोगों को यथावत् भोगते रहो।’’ राजा श्वेत बहुत दुःखी हुए। लेकिन कर भी क्या सकते थे? महाशक्ति के नियमों का पालन तो करना ही था।अब ‘राजा’ विमान द्वारा प्रतिदिन पृथ्वी पर आते तथा अपने मृतक-शरीर को काट-काटकर खाते और फिर स्वर्ग को वापिस लौट जाते। इस प्रकार यह उनका दैनिक कार्यक्रम बन गया था। अतः राजा श्वेत ने दुःखी होकर एक दिन ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि ‘‘हे भगवन् मेरा यह मृतक-शरीर एक न एक दिन तो समाप्त हो ही जायेगा। तदोपरान्त मेरे लिए भोजन की क्या व्यवस्था होगी?ब्रह्मा जी ने कहा, ‘‘राजन्! तुम्हारा वह शरीर कभी भी समाप्त नहीं होगा। वह अक्षय है और अविनाशी है। तुम्हारे सद्कर्म और भक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण वह कभी खराब भी नहीं होगा। अतः तुम निश्चिन्त होकर वहाँ जाकर नित्य-प्रतिदिन अपना पेट भर लिया करो।’’विवश राजन अपना पेट किसी तरह तो भरता ही था किन्तु अत्यन्त दुःखी था। सोचता था कि इस पाप-कर्म से मेरी कब और कैसे मुक्ति होगी? एक दिन वह इसी असमंजस में डूबते-उतरते नारद जी के पास पहुँचे और अपनी समस्त मनोव्यथा कह सुनाई तथा अपने उद्धार का उपाय भी पूछा। नारद जी बोले, ‘‘हे राजा श्वेत! प्रत्येक आध्यात्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दण्ड का ‘अन्त’ तो अवश्य हुआ ही करता है। किन्तु मुहूर्त महाबलशाली है। जब दण्ड भोगते-भोगते किसी पाप या अपराध् का अन्त हो जाता है तभी उसकी मुक्ति का मुहूर्त उदय हो जाता है। हे राजा श्वेत! तुमको अपना शरीर खोते हुए देखकर जब अगस्त्य मुनि जी की दृष्टि तुम पर पड़ जाएगी और तुम उनके दर्शन कर लोगे, तभी तुम अपने को कृतार्थ व मुक्त समझ लेना क्योंकि अगस्त्य मुनि जी महान शक्तिशाली और योगेश्वरों के भी योगेश्वर हैं।’’कालान्तर के पश्चात् एक दिन देवयोग से अगस्त्य मुनि जी विचरण करते हुए उसी वन-स्थली में आ पहुँचे। वहाँ पर तालाब के किनारे मुनिवर ने एक अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति का ‘शव’ पड़ा हुआ देखा। कुछ देर विचार कर मुनिदेव सोच ही रह थे कि कौन इस जंगल में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर गया? इतने में ही उन्होंने देखा कि एक विमान ‘स्वर्ग’ से उतरा और उसमें से एक सुन्दर युवक अनेक रूपवती अप्सराओं के साथ आया। युवक, विमान से उतरकर उस मृतक-शरीर को खाने लगा। अप्सराएँ खड़ी-खड़ी यह कृत देखती रहीं। जब वह युवक मृत-शरीर का भक्षण करने के बाद विमान पर चढ़ने के लिए चला, तो मुनिवर ने उसके चेहरे को देखकर पहचान लिया। अगस्त्य मुनि जी उच्च-स्वर में पुकार कर बोले, ‘‘अरे श्वेत! तुम ऐसा घृणित-कार्य किस प्रयोजन हेतु करते हो? यह महापाप भोगने का फल तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ? अरे राजन्! तू तो राजा अशोक का वंशज है, जिसने इस भूपटल पर कभी एकछत्र राज्य किया था। अतीत के उस लोह-कुल का नाम आज भी भूमण्डल पर विकृत रूप में लोध-वंश नाम से प्रसिद्ध है।’’ इतना सुनते ही राजा श्वेत करबद्ध होकर अगस्त्य मुनि जी के चरणों में गिर पड़े। राजा बिलख-बिलखकर रोने लगे। करुणानिधन अगस्त्य मुनि जी को राजा श्वेत पर दया आयी। उन्होंने राजा को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। राजा अत्यन्त व्यथित होकर बोले, ‘‘हे नाथ! आज मेरा उद्धार हो गया है। जिन पापों को मैं बहुत दिनों से भोग रहा था, वे आज समाप्त हो गये हैं।’’ अगस्त्य मुनि जी ने कहा, ‘‘जाओ राजन्! तुम आज से स्वर्ग में आनन्द करो। अब तक तुमने किसी देवर्षि का श्राप भोगा, अब एक मुनि का आशीर्वाद भोगना। तुम्हें भूख-प्यास कुछ भी नहीं सतायेगी।राजा श्वेत, मुनि अगस्त्य जी के दर्शन कर ‘कृतार्थ’ हो गये। उनके मन में एक अलौकिक व आध्यात्मिक शक्ति का उदय हुआ। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। मारे खुशी के इतनी वैराग्य-भावना उमड़ी कि राजा श्वेत से रुका न गया। अब वह क्षत्रिय-वंशज होने के कारण विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन सी अमूल्य-धरोहर है जिसे मैं गुरु-चरणों में अर्पित कर दूँ। अन्त में उनका ध्यान अपनी उस अमूल्य-दिव्यमणि की ओर गया जिसे कभी देवराज इन्द्र ने राजा श्वेत को प्रसन्न होकर भेंट की थी। राजा श्वेत ने उसी दिव्यमणि को तुरन्त अगस्त्य मुनि जी को अर्पण कर दिया और उनके चरण स्पर्श करके विदा ली। तत्पश्चात् राजा श्वेत ने अगस्त्य मुनि जी को ही अपना पूज्य-गुरु चुन लिया।

राजा नल व दमयन्ती

कुन्दनपुरी का इतिहास बताता है कि सतयुग में इस तपोभूमि पर कई महान शक्तियों ने अवतार लेकर समस्त मानव-जाति का समय-समय पर मार्गदर्शन एवं उद्धार किया है। इसी श्रृखला में, सतयुग में महानगरी कुन्दनपुरी के प्राँगण में एक अत्यन्त शक्तिशाली, दानशील व सत्यवादी राजा हुए हैं। इनका नाम राजा भीम सिगर था। इनके तीन पुत्र तथा एक पुत्री थी। इनकी रानी का नाम अशोक सुन्दरी था जो एक अत्यन्त धर्मिक-प्रवृत्ति की पतिव्रता नारी थी। पुत्रों के नाम थे दम, दान्त और दमन। ‘दम’ नाम इसलिये पड़ा क्योंकि उसने अपने मन पर पूर्ण-रूप से अधिकार कर लिया था। वह ‘मन’ के पीछे नहीं चलता था बल्कि वह ‘मन’ को अपने पीछे चलाता था। ‘दान्त’ नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उसने सामने बड़े-बड़े ‘दैत्य’ आकर झुकते थे। राजा का ‘राज्य’ भूपटल पर पूर्ण-रूप से विख्यात था कि ये राजा ‘मन’ के पीछे नहीं भागते जबकि बड़े-बड़े राजा मन के पीछे भागते थे। ये महान शक्तिशाली व तेजस्वी राजा हुए हैं। ‘दमन’ नाम इसलिये पड़ा क्योंकि उसने बाल्यावस्था से ही पूर्ण-रूप से अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया था। इसलिए प्रजा की दृष्टि में वे ईश्वर के तुल्य पूज्यनीय हो गए थे। ये ही तो इनके तप व तेज का प्रभाव था। राजा भीम सिगर की पुत्री ‘दमयन्ती’ इतनी सुन्दर, सुशील और कीर्तिवान थी कि इन्द्रादि देवता भी उससे विवाह के लिये उत्सुक रहते थे। उसी काल में निषध् देश में महाश्रेष्ठ राजा ‘प्रथम’ के यहाँ राजकुमार ‘नल’ ने जन्म लिया जो आगे चलकर महान गुणवान तथा शीलवान राजा प्रसिद्ध हुआ। राजा नल बड़े प्रतापी राजा थे। राजधानी कुन्दनपुरी से निषध् देश को आने-जाने वाले याचकों से एक-दूसरे के गुणों की प्रशंसा सुनकर राजा नल तथा दमयन्ती के हृदय में परस्पर ‘अनुराग’ उत्पन्न हो गया। ये अनुराग बढ़ते-बढ़ते इतना प्रबल हो गया कि वह अपनी सीमा को भी लाँघ गया। जब राजा भीम सिगर ने देखा कि उनकी कन्या, विवाह के योग्य हो गई है तो उन्होंने पुत्री ‘दमयन्ती’ का स्वयंवर रचाने का निश्चय किया। राजमहल से देश-विदेश में इसकी घोषणा करा दी गयी व निमंत्राण भेज दिये गये।स्वयंवर का समाचार पाकर दूर-दूर के नरेश ‘कुन्दनपुरी’ पधारने लगे। निषध देश के राजा ‘नल’ ने भी इस स्वयंवर के लिये प्रस्थान किया। उधर देवलोक से राजा इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम-देवता भी ‘दमयन्ती’ को प्राप्त करने के लिये चल दिये। देवताओं को भली-भाँति विदित था कि दमयन्ती, राजा ‘नल’ को चाहती है। स्वयंवर के लिए आते समय मार्ग में सूर्य के समान कीर्तिवान अति-सुन्दर राजा ‘नल’ के तेज को देखकर देवतागण आश्चर्यचकित रह गये। मध्य-मार्ग में ही वे राजा नल के पास गये और बोले कि राजन! सुना है आपकी सत्यवृत्ति की पताका आकाश में लहराती है। क्या इस स्वयंवर में आप हमारी सहायता के लिये हमारा दूत बनना स्वीकार करेंगे? राजा नल ने देवताओं का आग्रह स्वीकार कर लिया। देवताओं ने राजा की परीक्षा लेते हुए कहा कि हे राजन्! आप हमारे दूत के रूप में दमयन्ती से जाकर कहिए कि हम लोग उससे विवाह करना चाहते हैं। अतः हम में से वह किसी को भी अपना पति चुन ले। राजा नल ने नम्रता-पूर्वक कहा कि हे देवलोक वासियो! आप लोग जिस उद्देश्य से दमयन्ती के पास जा रहे हैं, उसी उद्देश्य से मैं भी उसके पास जा रहा हूँ अतः वहाँ मेरा, आपका दूत बनकर जाना उचित नहीं है। देवतागण कहने लगे कि हे राजन्! आप पहले ही हमारा दूत बनना स्वीकार कर चुके हैं। अतः अब आप अपनी मर्यादा को तजकर अपना वचन असत्य ना करें। राजा नल को देवताओं का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। साथ ही साथ इन्द्र ने राजा नल को वरदान दिया कि दमयन्ती-स्वयंवर में प्रविष्ट होते समय आपको द्वारपाल आदि भी न देख सकेंगे, इससे आप सहज ही राजमहल में प्रवेश कर जायेंगे।तत्पश्चात् राजा नल, दमयन्ती के भवन में पहुँच गये। दमयन्ती तथा उसकी सखियाँ परम-सुन्दर युवा-पुरुष को अपने समीप आया देखकर आश्चर्य-चकित रह गयीं। वो अपनी सुध-बुध् ही खो बैठीं। राजा नल ने दमयन्ती से अपना परिचय देकर कहा कि हे देवी! मैं इन्द्र, वरुण, यम और अग्नि-देवता का दूत बनकर आपके पास आया हूँ। ये देवतागण आपसे विवाह करना चाहते हैं, अतः आप इनमें से किसी को भी अपना ‘वर’ चुन सकती हैं। दमयन्ती ने राजा नल का परिचय पाकर कहा कि हे नरेन्द्र! मैं तो पहले ही अपने मन में आपको अपना ‘वर’ मान चुकी हूँ। मैंने आपके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। अतः कृपया अब आप अपनी इस तुच्छ दासी को, अपने चरणों में स्थान दीजिये। यदि आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं विष खाकर या आग में जलकर अथवा जल में डूबकर या फिर फांसी लगाकर अपने ‘प्राण’ त्याग दूंगी। राजा नल ने बड़ी सच्चाई से ‘दूत’ के कर्तव्य का पालन किया। वो अपने कर्तव्य पर अडिग रहे। यद्यपि वे स्वयं दमयन्ती को चाहते थे, फिर भी उन्होंने देवगणों के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का वर्णन करके दमयन्ती को समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया। लेकिन दमयन्ती स्वर्ग के ऐश्वर्य तथा मरीचिका से तनिक भी प्रभावित नहीं हुई। राजा नल ने कहा, हे देवी! देवताओं को छोड़कर आपका मुझ मनुष्य को चाहना, कदापि उचित व तर्क-संगत नहीं है। अतः आप अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं को क्रोधित करने से मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है। अतः आपको मेरी बात मान लेनी चाहिए। यह सुनकर दमयन्ती डर गयी और उसके नेत्रों से अश्रुधरा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती कहने लगी, हे राजन्! मैं देवताओं को नतमस्तक होकर, मन में आपको ही अपना पति मानती हूँ। अब कोई दूसरा उपाय सोचने योग्य नहीं रहा। फिर भी राजा नल ने दमयन्ती को स्वयंवर में देवताओं को ही अपना वर चुनने का परामर्श दिया तथा वहाँ से विदा ली। लौटकर देवताओं को राजा नल ने समस्त वृतान्त कह सुनाया।स्वयंवर की सभा प्रारम्भ होने पर चारों देवता राजा नल के समान अपना ‘रूप’ धारण करके, राजन के पास बैठ गए। जब दमयन्ती वरमाला लेकर स्वयंवर-सभा में आयी तथा उसने राजा नल के समान पाँच पुरुषों को पदासीन देखा तो वह ‘नल’ को न पहचान सकी और अत्यन्त सोच में पड़ गई। उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में उसने इस समस्या के समाधान के लिये देवताओं की शरण में जाने का निश्चय किया। दमयन्ती कहने लगी, हे परम-पूज्य देवगणों! आपको विदित ही है कि मैं पहले ही मन तथा वाणी से राजा नल को अपना पति-परमेश्वर स्वीकार कर चुकी हूँ। राजा नल की प्राप्ति के लिये मैं चिरकाल से तप तथा व्रत भी कर रही हूँ। अतः हे भगवन्! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो मेरे सत्य के प्रताप से देवलोक के देवतागण मुझे मेरे राजा नल के दर्शन करा दें तथा ऐश्वर्यशाली देवतागण भी अपने आपको प्रकट करें, जिससे मैं नरपति नल को पहचान सकूं। पतिव्रता का तिरस्कार करने का साहस तो देवताओं को भी नहीं होता। दमयन्ती की इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवताओं ने उसे ‘देवता’ तथा ‘मनुष्य’ में भेद करने की शक्ति प्रदान कर दी। उसने देखा कि पाँच में से चार पुरुषों के शरीर पर न तो पसीना है, न धूल है तथा उनके शरीर की ‘छाया’ पृथ्वी पर नहीं पड़ रही है और वे पृथ्वी को स्पर्श भी नहीं कर रहे हैं व उनकी माला के ‘पुष्प’ तनिक भी नहीं कुंभला रहे हैं। दमयन्ती ने सभी देवताओं को पहचानकर उन्हें प्रणाम किया। पाँचवे ‘पुरुष’ को जिसके शरीर पर कुछ धूल पड़ी थी, कुछ पसीना आ गया था व उसके शरीर की छाया भी पृथ्वी पर पड़ रही थी तथा वह भूमि को स्पर्श भी कर रहा था और उसकी माला के पुष्प कुछ कुंभला गये थे, दमयन्ती ने पहचान लिया कि ये ही राजा नल हैं। उसने तुरन्त उनके कंठ में जयमाला डाल दी। इस प्रकार अपनी दृढ़-निष्ठा तथा पतिव्रता के प्रभाव से, दमयन्ती ने पति रूप में राजा नल को ही प्राप्त किया। देवताओं ने प्रसन्न होकर दमयन्ती को आशीर्वाद दिया।सत्पुरुषों की कितनी सत्य-प्रतिज्ञा और दृढ़-निष्ठा होती है। जिस देवी-शक्ति ने स्वर्ग के सुख, ऐश्वर्य तथा भोगों को त्यागकर अपनी वाणी को तनिक भी न डगमगाने दिया और मनुष्य-जन्म धरण करने वाले राजा नल से ही विवाह किया, उस सतयुगी-देवी की परम्परा अर्थात् धरम-निष्ठा और पतिव्रता की व्याख्या, हम आज तक अर्थात् इस कलयुग में भी करते हैं।

भीम उत्सव था वहां, उसने कुन्दनपुरी राजधानी में,
संसार के सब भूप थे, उस स्वयंवर की शानी में।
भीम की थी सती सुन्दरी, वरमाला लिए हाथ में,
भूपों को थी देखती, लिए सखी सहेली साथ में।
मुकुट बांधे शीश थे, राजेश नल बैठे जहां,
हषिर्त हो दमयन्ती ने, डाली थी जयमाला वहां। ।।1।।

त्याग दिए स्वगार्दि भोग, दमयन्ती से देवगण विवाह करने आये थे,
निषध देश के स्वयंवर में, राजा नल भी वहां पर आये थे।
प्रतिज्ञा नहीं तोडी उसने, रीति ये रघुकुल की न्यारी,
त्याग हो तो एेसा हो, वचन से पीछे हटी ना नारी। ।।2।।

सती दमयन्ती को साथ लेकर, राजा नल सब चल दिए,
महाराज भीम सिगर ने आदर सहित, भूप सारे विदा किए।
नरवर अपने गढ में जाकर, फिर राज्य वो करने लगे,
सुख-चैन देकर अपनी प्रजा को, कष्ट उनका हरने लगे।
प्राचीन है राजधानी धाम, हेतराम हैं जन्मे यहां,
गुरुदेव इस कुन्दनपुरी नगरी का, पूरा हुआ है इमत्यहां ।।3।।

तेरी भूमि है उत्तम निर्मल, तीर्थ-धाम कहलाती है,
तेरे कुल की रीति यही है, प्रतिज्ञा पूर्ण कराती है।
बहे थी गंगा मां वहां पर, सत्पुरुषों की याद दिलाती थी,
देखकर वहां की तपोभूमि, हेतराम को नित्य रुलाती थी। ।।4।।

गुप्त प्रगट व सिद्ध-पुरुष, इस पुण्य-भूमि में विचरते हैं,
अर्द्ध्-रात्रि में अवन्तिका देवी की, नित्य प्रति वे पूजा करते हैं।
महापुरुष पतित-उद्धारक, आपको कोटि-कोटि हमारा प्रणाम,
योगी-सुत मां सोमती को देकर, आप गये परलोक धाम।
उन कालगुंजार योगेश्वर को, जल अंजुलि अर्पित कैसे करें,
इतना सामर्थ्य बल हम में नहीं, उनकी आराधना कैसे करें। ।।5।।

Friday, April 17, 2009

तपोभूमि कुन्दनपुरी का महात्म्य

द्वापर-देव भगवान श्री कृष्ण की प्रसिद्ध ससुराल, महानगरी कुन्दनपुरी जो अतीत में कुण्डिनपुरी नाम से समस्त भूमण्डल पर विख्यात थी, आज भी पावन गंगा मैया की गोद में बसी हुई अपने प्राचीन इतिहास को दोहरा रही है। इसकी कीर्ति-गाथाएँ आज भी गंगा की पावन लहरों में गूँजती है। कुन्दनपुरी का कीर्ति-स्तम्भ कभी भी धूमिल नहीं पड़ेगा। उसका अमर इतिहास गंगा-माँ की धराओं के अनवरत हिलोरों में सतत् निखरता रहता है। ‘कुन्दनपुरी’ नाम की सार्थकता आज भी इस भूमि में पूर्ववत् विद्यमान है। जिस पवित्र देवस्थली की देहलीज में पैर पड़ते ही नास्तिक पुरुष की आत्मा में भी भत्ति-प्रवाह उमड़ उठता है, उसके समस्त मनोविकार, मानसिक अशान्ति, विद्वेष एवं दुर्भावनाओं का क्षण-मात्रा में ही विनाश हो जाता है, ऐसी देवस्थली के कण-कण को शत्-शत् प्रणाम, शत्-शत् नमन।
शत्-शत् बार नमन, सर्वदा उन सत्पुरुषों की शक्ति को।
राजपाट, सुख-सम्पत्ति, सब अर्पित कर दी जिन्होंने गुरु-भक्ति को।।
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के प्रसिद्ध् जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर, उत्तरी दिशा में राजकीय-मार्ग पर बसा ये ग्राम कुन्दनपुरी आज ‘आहार’ नाम से प्रसिद्ध् है। गंगा-माँ के आंचल में बसा ये नगर, कलयुग का कल्पवृक्ष बनकर ‘ भक्त श्रद्धालु सत्पुरुषों की मनोभिलाषाओं व आकाँक्षाओं की पूर्ति में सक्षम है। जगदम्बे मातेश्वरी अवंतिका देवी गंगा-माँ की गोद में यहाँ विराजमान हैं, जिनके दर्शन हेतु वर्ष भर में असंख्य भाग्यशाली भक्त लोग आते हैं। आहार-वासियों का कहना है कि आज भी नवरात्रों की उपवास अवधि में एक शेर शक्ति-पुँज महारानी अवंतिका देवी के मन्दिर में पदार्पण करके भक्ति-पूर्वक प्रणाम करता है और फिर तीन बार दहाड़ मारकर, गंगा-माँ के घनघोर वनखंडों में अदृश्य हो जाता है। कुन्दनपुरी, भगवान श्रीकृष्ण के ससुर महाराजा भीष्म की राजधानी थी। यहाँ गंगा जी के किनारे-किनारे ऊबड़-खाबड़ टीलों पर बसे जंगल की शोभा ‘अद्वितीय’ है। महाराजा भीष्मक के राजमहल, शाही-किले व समस्त राजकोष जो कि कालान्तर में इन्हीं टीलों के गर्भ में समा गये थे, उनके खंडहर-अवशेष आज भी इन्हीं टीलों में अतीत की गाथाएँ सुनाते हैं। ऋषि-मुनियों ने अपनी-अपनी भाषा में इस तपोभूमि की कुछ इस प्रकार व्याख्या की है-
कुन्दनपुरी राजधानी के, निकट ही गंगा बहती है।
ये भूलों को ऋषि-मुनियों की, तपोभूमि की शिक्षा देती है ।।
शोर मचाती, धूम मचाती, गंगा जी वहाँ रमती हैं।
पाप-नाशिनी जग-तारिनी, अपनी मस्ती में बहती हैं।।
शेर बघेरे चीते रह-रहकर, किलोल करते हैं जहाँ।
कुन्दनपुरी के जंगलों में, गूँजती है उनकी दहाड़ वहाँ।।
उस तपोधरा पर जाने से, गंगा पापों को हरती है ।।
राजाओं के राज्य तपे थे, उस तपोभूमि के उपवन में।
ऋषि-मुनियों की घोर तपस्या, है भूमि के कण-कण में।
भीष्मक-राजा का राज्य तपा था, उस तपोवन की भूमि में।
शेर, बकरी, चीते पानी पीते, यहाँ एक घाट में।।
लोध् राजपूतों की, ये ही पुरातन बस्ती है ।
किले के ऊपर तोप रखी थी, आकाश में धुआँ उड़ता था।
दस फुट ऊंचा राजसिंहासन, भीष्मक राजा का चमकता था।।
हाथी घोड़े, फौज रिसाले, संगीनों का पहरा था।
रुक्मणी के पांचों भाइयों का, राम-लखन सा रहना था।।
भीष्मक राजा के धर्म-कर्म की, प्रकृति भी यश गाती है
उसी भूमि पर सीताजी ने, रुक्मणी का अवतार लिया था।
पिता भीष्मक राजा का, विश्व में ऊंचा नाम किया था।।
घोर तपस्या रुक्मणी कीन्हीं, इन्द्र-सिंहासन हिला दिया था।
रुक्मणी अवंतिका देवी, कृष्ण की विनती करती है।।
उसी भूमि पर कृष्ण जी ने, युद्ध किया था बड़ा भारी।
पूजा करती रुक्मणी की, अवंतिका ने प्रार्थना स्वीकारी।।
श्री कृष्ण के आगे, राजाओं का ताज झुका था।
रुक्मणी को हार, भीष्मक के यहाँ प्रकोप हुआ था।।
गंगा मैया जोश में आकर, भीष्मक-किले पर चढ़ती है।
भागीरथी गंगा जी ने, भीष्मक-किले पर हमले किये थे।
किले खजाने काट-काटकर, अपने गर्भ में समा लिये थे।।
ये दीन दशा देख देखकर, भीष्मक मन में हैरान हुए थे।
किले खजाने कटे देखकर, मन में अति परेशान हुए थे।।
हारकर भीष्मक-रानी, गंगा और गुरु से विनती करती है।
उस हारी हुई भूमि का नाम, सोचकर आहार धराया था।
तभी भीष्मक-पुत्र रुक्मी ने, भोजकट-दरावर नगर बसाया था।।
राजा रुक्मी ने भोजकट-दरावर में, एकछत्र राज्य किया था।
उसी भीष्मक-कुल में, ‘हेतराम’ ने जन्म लिया था।।
रमेशचन्द्रानन्द जी की मातृभूमि, सदा ही उनको जपती है।

-2-
कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर, जहाँ राजाओं के राज्य हुए।
गंगाजी के आँचल में हैं, ये युगों-युगों से बसे हुए।
प्राचीन राजधानी थी, इस तपोभूमि के भाग्य बड़े।
राजाओं के राज्य छूट गये, टूटे उनके किले पड़े।।
तहसील परगना लगते थे, वहाँ होते न्याय धर्म बड़े।
हाथी-घोड़े, फौज-रिसाले, ऊंचे-ऊंचे दुर्ग खड़े।।
इसी धरा पर राजा-रानी व कितने सन्त महान हुए।
भीष्मक राजा अति निपुण, सती रानी प्रभावती थी।
धर्म-कर्म में रमते सदा, प्रेम भरी उनकी वाणी थी।।
यज्ञ-हवन अनुष्ठान करे थे, राजाओं में थे बड़े दानी।
जिनकी कीर्ति-गाथा ऋषि-मुनियों ने, जग में थी बखानी।।
हार भीष्मक रुक्मणी को, आहार नगर विख्यात हुए।
रुक्मणी, रुक्मैया, राजा रुक्मेश थे बलवान बड़े।
रुकमदत्त व रुकमवीर, रुक्मणी-रूमावती में प्रेम बड़े।।
सकर कोठी राजाओं की, सुनहरे खिर्नी के वृक्ष खड़े।
भाँति-भाँति के पुष्प सुहावने, रंग-बिरंगे वृक्ष खड़े।।
इसी भूमि पर यति-सती और महासिद्ध् अवतार हुए।
कुन्दनपुरी की अद्भुत शोभा, मुख से कही नहीं जाती है।
इसे देखकर स्वर्ग-लोक की, सुन्दरता भी लजाती है।।
ये ऋषि-मुनियों की भूमि है, प्रकृति ये बतलाती है।
इस पावन धरनी पर जाने से, आत्म-शान्ति मिल जाती है।।
इस भोजकट-दरावर भूमि पर, राजा ऋषि महान हुए।
है निकट इसी के अम्बकेश्वर, जहाँ भारी मेला लगता है।
फाल्गुन मास शिव-चैदस को, यहाँ लाखों काँवर का जल चढ़ता है।।
इसी के निकट अवंतिका देवी, जहाँ राम-नवमी का मेला लगता है।
उसी स्थल पर रुक्मणी देवी का, रुक्मणी-कुंड दमकता है।।
इसी भूमि पर सिद्ध् आश्रम, जो संसार में िवख्यात।
इसी भोजकट-दरावर नगरी में, बालक हेतराम का जन्म हुआ।
बाल-लीला दीखन लागी, जैसे कृष्ण का अवतार हुआ।
लगा चरावन गायों को, आैर ग्वालों का सरदार हुआ।
गंगा-तट पर विचरण करके, बीयावान में ज्ञान हुआ।
ऋषि-मुनियों की सेवा कर, हेतराम शमशान देख हैरान हुए।
हाथ में लकुटि गऊ चरावे, ग्वालों में किलोल करे थे।
नित्य गंगा स्नान पान कर, देवों में ध्यान धरे थे।
शीर्षासन लगा-लगाकर, तट पर उल्टे तपा करे थे।
वनखण्डों में छुप-छुपकर, योग-समाधि लीन रहे थे।।
पूर्वजन्म की घोर तपस्या के, उदयमान तूफान हुए ।
अवतार लिया था श्री कृष्ण ने, दैत्यवंश मिटाने को।
रूप बदलकर कृष्ण आये, कलयुग का भार हटाने को।।
गुरु भक्तों ने भजन बनाये, जग का भय मिटाने को।
रमेशचन्द्रानन्द अवतरित हुए, भटकों को राह दिखाने को।।
हमारी चरण-वन्दना गुरुदेव को, जो युग-युग में विख्यात हुए।

3-
एक बार की बात हुई, पावन गंगा ने आक्रोश किया।
गंगा-जल फेला सब आेर, किले पर भी रोष किया।।
प्रविष्ट हुआ जब जल नगर में, किले को उसने हिला दिया।
काट-काट कर किला खजाना, सब अपने में समा लिया।।
गंगा में जब द्रव्य कटे थे, झनन मनन वहाँ होती थी।
जनता खड़ी कौतुहल देखे, किसी में सामथय ना होती थी।
आधा नगर कटा था जल में, जनता बड़ी भयभीत हुई।
ऋषि-मुनियों ने की कृपा, तब पावन गंगा शान्त हुई।।
इसी भूमि पर भीष्मक ग्रहे, ज्येष्ठ-पुत्रा राजा रुक्मी ने जन्म लिया।
भीष्मक राजा ने सर्वस्व तजकर, राज्य ‘पुत्रा’ को सौंप दिया।।
राजा भीष्मक, रानी प्रभावती, गुरु चरण-रज में रमने लगे।
राजपाट को भूल गये, जब मन में भक्ति ध्रने लगे।।
दान-पुण्य अरु भजन-भक्ति में, सदा लीन वो रहते थे।
गुरुजनों और ऋषि-मुनियों की, सेवा में तत्पर रहते थे।।
रुक्मेश और रुक्मैया भाई, राज्य की सेवा करते थे।
फौज़-फर्रा की देख-रेख में, पूरी दृष्टि रखते थे।।
रुकमदत्त और रुकमवीर थे, महावीर बलवान बड़े।
बड़े-बड़े बलवानों के उन्होंने, क्षण में थे मान हरे।।
रुक्मणी व रूमावती, दोनों बहनें कहलाती थीं।
अवंतिका देवी के पूजन को, नित्य मन्दिर में जाती थीं।।
-4-
बड़े-बड़े महाबली, हो गए महिप भूप।
ग्रंथ, में जिनके, यश-प्रताप गाए हैं।।
प्रियवृत राजा, रथ चक्कर से समुद्र भये।
राजा प्रभु, दान गिरी, कंचन कराये हैं।।
राजा अमरीच-बैन, एकछत्र राज कियो।
सगर दिलीप के, सुयश नैन बिछाये हैं।।
हिरण्याकुश ऐसो भयो, हरि नाम को छुड़ाय दियो।
हिरण्याक्ष फिर पृथ्वी, चटाय कर लाये हैं।।
बाणासुर, सहड्डबाहु, बाली, जामवन्त बलि।
पवन-पुत्रा वीर जो, उखाड़ मेरु लाये हैं।।
परशुराम पंथ भीम, भीष्म सरीखे वीर।
बाणन के मार्ग, स्वर्ग को बनाये हैं।।
रावण राजा ऐसे, बीस-बाँह दस-शीश जाके।
वरुण कुबेर इन्द्र, काल जीत लाये हैं।।
राजा दुर्योध्न की, करत पखेरू छाँय।
ग्यारह अक्षोहणी दल, वुफरुक्षेत्रा में बिताये हैं।।
पर भूमि कहत रही, मैं ना भयी टस से मस।
मुझे संग ले ना गये, विश्व के महान वंश।।
मेरी-मेरी कहकर सब, मुझमें समाये हैं।
लोध्वंश, कश्यप-गोत्र, भोजकट-दरावर भूप।।
क्षत्राणी-वुफल पूर्वजों की, परम्परा के अनूठे रूप।
कहत योगी रमेशचन्द्रानन्द, ये योग-ग्रंथ में लिख दियो।
अमर गाथा भोजकट-दरावर की, वहीं अब छोड़ आये हैं।।
राजा भीष्मक के पाँच-पुत्र रुक्मी, रुक्मैया, रुक्मेश, रुकमदत्त व रुकमवीर थे तथा दो पुत्रियाँ रुक्मणी व रूमावती थीं। रुक्मणी परम-सुन्दर तथा धर्मिक प्रवृत्ति की थी। जब वह सयानी हुई तो एक दिन नारद जी कुन्दनपुरी आये। उन्होंने रुक्मणी का हाथ देखकर कहा कि पुत्री! तेरा विवाह तो द्वारकाधीश महाराज श्रीकृष्ण जी के साथ होगा। तदोपरान्त नारद जी ने द्वारकापुरी में जाकर यदुवंशी महाराज श्रीकृष्ण चन्द्र जी से भीष्मक-पुत्री रुक्मणी के सर्वगुण सम्पन्न की व्याख्या की। फलस्वरूप उनके हृदय में भी रुक्मणी के प्रति ‘प्रेम’ उत्पन्न हो गया। इधर कुछ याचकों ने भी राजा भीष्मक के पास कुन्दनपुरी में जाकर श्रीकृष्ण-चरित्र का यशोगान किया। अपनी अटारी पर बैठी रुक्मणी ने भी यह सब सुना। उसके हृदय में भी श्रीकृष्ण जी के प्रति अगाध्-प्रेम उत्पन्न हो गया। श्रीकृष्ण जी का यशोगान सुनकर रुक्मणी, श्रीकृष्ण जी के ध्यान में ऐसी डूब गई कि वह रात-दिन उन्हीं का स्मरण किया करती थी और देवी माँ अवन्तिका जी की आराधना करके यह वर माँगती थी कि श्रीकृष्ण जी ही मेरे पति हों। उधर राजा भीष्मक का बड़ा पुत्र ‘रुक्मी’ अपनी बहन रुक्मणी का विवाह, चन्देरी के राजा ‘शिशुपाल’ जो कि अत्यन्त बलवान था उसके साथ करना चाहता था। भीष्मक का छोटा पुत्र रुक्मेश इस विवाह को श्रीकृष्ण जी के साथ करना चाहता था। अन्त में युवराज रुक्मी के आग्रहनुसार, रुक्मणी का विवाह शिशुपाल के साथ होना निश्चित हो गया। यह सुनकर रुक्मणी व्याकुल हो गयी। इसका पता जब श्रीकृष्ण जी को चला, तुरन्त उन्होंने अपने दारुक-सारथी द्वारा रथ मंगवाया और कुन्दनपुरी के लिये प्रस्थान कर दिया। पीछे-पीछे बलराम जी भी अपनी सेना सहित चले आये। इधर मगध्-नरेश जरासन्ध् व शिशुपाल भी अपने पचास हजार शूरवीर सैनिकों को लेकर वहाँ पहुंच गये। जब इन्हें श्रीकृष्ण जी व बलराम जी की उपस्थिति का वहाँ पता चला तो इनके होश-हवाश उड़ गये। घमासान युद्ध हुआ। जरासन्ध् व शिशुपाल के ‘शूरवीर’ मुंह ताकते रह गये और श्रीकृष्ण जी उन सबके बीच में से रुक्मणी को इस प्रकार ले गये जैसे सिंह, गीदड़ों के झुँड में निर्भयता-पूर्वक घुसकर, अपना शिकार उठाकर ले जाता है। देखते ही देखते श्रीकृष्ण जी का रथ दूर निकल गया। सभी योद्धागण सावधन होकर उनके पीछे दौड़े। उस समय रुक्मणी को घबराई हुई देखकर श्रीकृष्ण जी ने कहा- ‘‘हे रुक्मणी! तू चिन्तित मत हो। मैं द्वारकापुरी पहुँचकर तेरे साथ शास्त्रानुसार विवाह करूंगा। मैं कोई अनर्थ नहीं कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा ‘हरण’ नहीं कर रहा। मैंने तो अपने एक ‘भक्त की पुकार सुनी है। जब भी मुझे मेरा कोई भी ‘भक्त’ सच्चे मन से याद करता है तो मुझे उसकी भक्ति के वशीभूत होकर उसकी सहायता के लिए आना ही पड़ता है। अपने सच्चे-भक्त की पुकार सुनना ही मेरा परम कर्तव्य है।’’ इतना कहकर श्रीकृष्ण जी ने अपने गले की माला उतारकर, रुक्मणी को पहना दी। इधर श्रीकृष्ण जी ने रुक्मी व उसकी सेना को और उधर बलराम जी ने जरासन्ध् व शिशुपाल तथा उनकी समस्त सेना को तहस-नहस कर दिया।इस हार के बाद राजा भीष्मक के बड़े पुत्र युवराज रुक्मी को इतना दुःख हुआ कि उसने अपनी राजधानी कुन्दनपुरी को सदैव के लिए त्यागने का प्रण कर लिया। उधर पावन-गंगा माँ ने भी आक्रोश किया और कुन्दनपुरीको काट-काटकर अपने प्रवाह में सजल करना आरम्भ कर दिया। अतः राजधनी के नये स्थान की खोज शुरू की गयी। राजा रुक्मी ने कुन्दनपुरी के समीप ही एक ऊंचा, पुराना व अत्यन्त रमणीक ‘टीला’ देखा। इस टीले की शोभा देखते ही बनती थी। यहाँ मनमोहक फूल-फल व प्रकृति का बसेरा था। ऐसा लगता था कि प्रकृति ने अपना सर्वस्व यहाँ पर संजोकर रखा है। राजा इस स्थल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी राजधानी यहाँ स्थानान्तरित कर दी। आगे चलकर इसी स्थान का नाम ‘भोजकट दरावर’ पड़ा। इसी पावन-भूमि पर कालान्तर में स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज, देवी-माँ ‘सोमती’ की भुवन-कोख से बालक ‘हेतराम’ के रूप में अवतरित हुए।

पुष्पांजलि

1. हम अकेले हैं क्योंकि दूसरों को हम स्वीकार करते ही कहाँ हैं।
2. बूँद जब अपने को ही बूँद जानकर समुद्र को समर्पित होती है तो उसी क्षण वह स्वयं समुद्र-स्वरूप हो जाती है।
3. हम अंश हैं इसीलिए तो हमारा धर्म है कि हम पूर्ण बनें।
4. अंश-अंश देते रहने से अंश कभी भी पूर्णतः समाप्त नहीं होता और वह कभी पूर्ण भी नहीं हो पाता। अतः साहस करके सर्वस्व ही समर्पित कर दो। सर्वस्व ही पा जाओगे।
5. यहाँ कुछ देकर ही कुछ पाया जाता है। वहाँ सब कुछ देकर ही सभी कुछ पा लिया जाता।
6. वासनाओं के त्यागने पर ही उपासना ; परम के पास बैठनाद्ध सम्भव है।
7. गुरु के द्वार पर खड़े होकर अपनी कोई शर्त मत लगाओ अन्यथा अन्दर प्रवेश नहीं कर पाओगे।
8. गुरु को क्या करना है तथा क्या नहीं करना है, यह भत्त का विषय नहीं है। भत्त का विषय तो केवल गुरु-आज्ञा का पालन करना है।
9. गुरु, शत्ति-सामथ्यर्य का ऐसा असीम तथा अथाह सागर होता है जिसमें से आस्थावान-भत्त, प्रेम-डुबकी लगाकर अनमोल से अनमोल ज्ञान रूपी मोती को प्राप्त कर सकता है।
10. आत्म-ज्ञानी-गुरु के समक्ष प्रत्येक भत्त तथा शिष्य, पूर्णतः नग्न होता है। उनके सम्मुख आडम्बर करके अपने को ढ़कने अथवा सँवारने की आवश्यकता नहीं। जैसे हो, जिस अवस्था में हो, वैसे ही पूर्णतः समर्पित हो जाओ। अन्दर तक निखर जाओगे।
11. जिस प्रकार भगवान ने अपनी सृजन-शत्तियों को स्वाधीनता दी है, उसी प्रकार मनुष्य को भी पूरी स्वाधीनता दी गई है। वह चाहे तो अमृत का पुत्र हो सकता है और चाहे तो असुर का साथी। प्रत्येक क्षण यह चुनाव हमारे समक्ष आता रहता है। और हम बिना बुिद्ध् का प्रयोग करे ही चुनाव करते रहते हैं।
12. जो व्यत्ति प्राणिक-सत्ता तथा मानसिक-सत्ता से ऊपर उठकर दिव्य-सत्ता अर्थात् सर्वोत्तम शुद्ध् भगवत्-सत्ता से नाता जोड़ लेता है उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता।
13. हम प्रेम करते हैं लेकिन अपने आपस से, अपनी विकृतियों और निर्बलताओं से नहीं। संयोग से यदि जीव-मात्रा से प्रेम किया होता तो दिव्य-प्रकाश की परिधि में स्थित तीर्थाटन का ‘पुण्य’ प्राप्त हो जाता।
14. हम पल-पल छोटे बनते जा रहे हैं क्योंकि अज्ञानवश हम निरन्तर बड़े होने का दावा करते रहे हैं। अरे! तनिक ‘लघु’ बनकर तो देखो, संसार स्वयं सिद्ध् कर देगा कि आप ही महान् हैं।
15. हम स्वयं एक विशाल दिव्य-द्वीप हैं परन्तु ज्ञान रूपी दीपक के अभाव में हम आलस्य से ग्रसित होकर अंधकार में भटक रहे हैं।
16. शरीर के होम में, मन की आहुति के उपरान्त ही ‘आत्मा’ आनन्द अमृत-पान का आचमन करती है।
17. यदि आत्म-मन्दिर के द्वार पर अतिथि आवाहन के हेतु आप स्वयं निर्भय होकर बैठे हैं तो निश्चय ही आपके प्रथम और अन्तिम के अतिथि स्वयं ‘ब्रह्मदेव’ होंगे।
18. याद रखो! गुरु कभी भी आपके धन, वैभव अथवा मिथ्या-परिवेश से प्रसन्न नहीं होते। गुरु-कृपा की प्राप्ति के लिए अटूट-आस्था, निष्ठा एवम् भत्ति ही सक्षम और सुगम मार्ग है।
19. जब मानव अपने को अक्षम और नगण्य मानकर अपना समर्पित भाल, गुरु-चरणों में नतमस्तक करता है तो अनायास ही उसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
20. आप तो धन्य हैं जिनके गुरु एक ‘योगी’ हैं, एक दिव्य-पुरुष हैं, तप और त्याग ही जिनका धन-वैभव है। अवसर ‘श्रेष्ठ’ है। कुछ अमूल्य पाना चाहते हो तो प्रयास करो। अवश्य मिल जायेगा। सफलता की चरम-सीमा तुम्हारे कदम चूमेगी।

Thursday, April 9, 2009

योगियों का दावा

पृथ्वी इसकी साक्षी है कि आदिकाल से ही योगी, सन्त व साधक गणों का, मानव-जीवन के उत्थान में सदैव विशेष स्थान रहा है। आज के घोर भौतिकवाद अथवा कहिए अनैतिकवाद में इनकी महत्ता और भी बढ़ गयी है। ‘चमत्कार को ही नमस्कार है’। योगियों का दावा है कि ‘योगाभ्यास’ द्वारा शरीर को इतना हल्का-फुल्का किया जा सकता है कि आकाश में उड़ता हुआ मनुष्य पल-भर में इच्छानुसार कहीं भी जा सकता है। योगीजन ऐसे-ऐसे जादू के मरहम जानते हैं जिनको पैर के तलुवों पर लगाते ही मनुष्य अल्प-समय में ही पृथ्वी के किसी भी भाग में सरलता पूर्वक गमन कर सकता है। खेचरी-मुद्रा के अभ्यास द्वारा जिसमें जिह्ना को बढ़ाकर नासिका-छिद्रां के मूल में उल्टा करके लगाया जाता है, ‘योगी’ हवा में उड़ सकता है। मुख में पारद-योग के गुटके को रखकर, पलक झपकते ही योगी कहीं भी पहुँच सकता है। योगियों का दावा है कि वे ‘ध्यान द्वारा, दूर से दूर संसार के किसी भी स्थान का हाल बता सकते हैं अथवा कुछ ही क्षणों में ‘मन’ को उस स्थान पर भेजकर वहाँ की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। योगियों का दावा रहा है कि पृथ्वी के मानव तो क्या, अदृशय-आकाशवासी, देवी, देवताओं और ईश्वर तक के वे शब्द सुन सकते हैं। उनका दावा है कि वे कठिन से कठिन रोग की भी दृष्टि, स्पर्श अथवा मंत्रोच्चारण द्वारा निदान कर सकते हैं। रोगी का तो कहना क्या, वह मुर्दे तक को भी जीवित कर सकते हैं। ये हम सत्य-वाक्य कहते हैं। यह कोई अतिश्योत्ति नहीं है। ये ही सत्य है। सत्य ही योगियों का कवच है। यह सर्व-विदित है कि वर्तमान युग के बहुत समय पूर्व ही, योगीगण समझ चुके थे कि इस ‘जीवन’ में आध्यात्म-विद्या का ज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। उनको ज्ञान हो गया था कि इस विद्या द्वारा, इस भौतिक संसार में पल-भर में असम्भव को भी सम्भव कर देना असाध्य-कार्य नहीं है। आज भी भारतीय-जीवन में यह प्रवृत्ति ‘सर्वोपरि’ है। इसलिये कोई आश्चर्य नहीं कि आज लोग अपनी बहुत सी कठिनाइयों में वैज्ञानिकों व चिकित्सकों को भुलाकर साधु-सन्यासियों के पीछे ही अधिक दौड़ते हैं और लाभान्वित होते हैं। कभी-कभी साधुओं की चमत्कार-पूरण शाक्तियों की गाथाएँ सुनने को मिलती हैं कि अमुक साधु ने असाध्य-रोगों को, जिन पर किसी की भी औषधि काम नहीं करती थी, अच्छा कर दिया। आज भी भारतवर्ष के प्राकृतिक प्रांगण में तथा पहाड़ों और कन्दराओं में ऐसे अनेक ‘योगी’ विचरण करते हैं जिन्होंने वर्षों से ‘मन’ को एकाग्र करके भिन्न-भिन्न योग-सिदृध्याँ प्राप्त कर रखी हैं और अपने योगबल से ब्रह्मलीन होकर परम-आनन्द में वास करते हैं। बात केवल उनके दर्शन और मात्रा ‘कृपा’ होने की है, जो केवल आत्मिक-बल, आस्था, गुरु-कृपा, प्रारब्ध एवम् ईश-कृपा पर ही निर्भर करती है। हमारा परम-सौभाग्य कहिए अथवा परमेश्वर की महान-कृपा कि हम अ¯कचन को ऐसी दिव्य तथा महान विभूति के पावन चरणों में बैठने का पुनीत अवसर प्राप्त हुआ है जिनके संसर्ग एवं सानिध्य से हमारा निराश-भाव समाप्त हुआ। जिनके ज्ञान-स्पर्श एवं अमर-अनुराग ने हमारा जीवन दर्शन एवं हमारी जीवन धारा ही बदल दी। जिनकी असीम कृपा के चमत्कार-पूर्ण प्रभाव से हमारा यह तुच्छ-जीवन अमोल, सफल और सार्थक लगने लगा और अन्त में जिनकी चरण-रज के योगमय स्पर्श से हमारे तन-स्तर पर सुख, मन-स्तर पर शान्ति तथा आत्मा-स्तर पर आनन्द की अमर अनुभूति प्रज्वलित हुईं। ऐसी महान् आत्मा ‘श्री सदगुरू रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज वनखंडी’ के हम जन्म-जन्मान्तर ऋण्ी रहेंगे। उनके चरण-कमलों की धूलि, हमें अपने मस्तक पर चढ़ाने को मिली है। हमारा कितना परम सौभाग्य है। इसका वर्णन करना हमारी लेखनी की सामथ्र्य से परे की बात है।

विनय

तन हमारा मन्दिर का धोखा, मन हमारा माया का धाम।
भटक रही है आत्मा हमारी, याचना सुन लो कृपा निधान।।
मन्दिर मस्ज़िद अरु गुरुद्वारे हैं, सबको शत्-शत् हमारा प्रणाम।
चारों धाम का तीर्थ करके, अन्त में आया गुरु का ध्यान।।
बचपन, यौवन व्यर्थ गँवाकर, आये हैं बन बूढ़े द्वारे।
शक्ति हमारी शिथिल हुई अब, पकड़ लिये हैं चरण तुम्हारे।।
हम चूर रहे अहं के मद में, भक्ति में हमें मिटना सिखा दो।
असल नहीं ये खोटा सिक्का, पारस बनना इसे सिखा दो।।
हम अकिंचन हैं अज्ञानी, और अविवेकी हैं अभिमानी।
भक्त जनन के तुम हो स्वामी, अगम अगोचर अन्तर्यामी।।
सबको देकर दान दया का, भव से तुमने पार उतारा।
पुण्य-पाप का भेद मिटाकर, आगे बढ़कर दिया सहारा।।
सुनके हमारी विनती याचना, भक्ति का उत्कर्ष दिखा दो।
फंसे हुए अज्ञान तिमिर में, आत्म-ज्ञान की राह दिखा दो।।
हों अनुभवी गुरु हमारे सुन्दर, तुम शिव की अभिव्यत्ति करा दो।
सरस्वती की अतुल सम्पदा, हमको भी कुछ दान करा दो।।
गुरु जीवन गुणगान करें हम, ऐसे यश आकर सुझवा दो।
वाणी हमारी शिव-सुन्दर हो, शैली का शृँगार करा दो।।
बुदधि हमारी हो जाये स्थिर, हृदय को सम सूर्य बना दो।
आत्मा हमारी होवे उज्ज्वल, ऐसा तुम प्रकाश दिखा दो।।
हम उथली बरसाती नदियाँ, सागर से हमको मिलवा दो।
हर्ष, विषाद अरु हानि-लाभ में, सम रहना हमको सिखला दो।।
औरों का पथ करें आलोकित, ऐसा दीपक हमको बना दो।
‘आत्मा-लौ’ अविराम जले बस, ऐसी भत्ति सुधा पिला दो।।
नित्य हो भक्ति नूतन हमारी, हे गुरु ऐसा मंत्र बता दो।
गुरु! चरण-रज अपनी देकर, आत्मा का शृँगार कर दो।।

Tuesday, April 7, 2009

गुरु चरण रज-वन्दना

हम धरा की धूलि हैं, गुरुदेव तुम आकाश हो।
हम तिमिर अज्ञान के, तुम ज्ञान के प्रकाश हो ।।
हम पथ-भ्रष्ट हो अज्ञानता की, आँधियों में बह गये।
मद मोह माया लोभ-वश, भक्ति किला सब ढह गये।।
इस भंवर जंजाल के तुम, एक कुशल संत्रास हो ।।
की भक्ति बिना, सब भत्तियाँ निःस्सार हैं।
माता-पिता और गुरु ही, सर्वस्व सर्वाधार हैं।।
गुरु दो अभय-ज्ञान हमको, पूर्ण हमारी आस हो ।।
सदा आश्रित रहें गुरु के, ईश्वर से ये मांगें भिक्षा।
करे मार्गदर्शन जीवन भर, गुरुदेव की पावन शिक्षा।।
रोम-रोम के अधिकारी तुम, जीवन की तुम श्वांस हो ।।
राज सुख से भी है सर्वोपरि, स्वर्ग सम गुरु की शरण।
हो सफल जीवन हमारा, यदि हों सुलभ गुरु के चरण।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश हो तुम, गुरु जीवन के विश्वास हो ।।
तन रमा है ग्रहस्थ में, मन मगन है वैराग्य में।
आत्मा उलझती भँवर में, ज्ञान झुलसता आग में।।
इस भवसागर के मध्य गुरु, तुम केवट के प्रयास हो ।।
तन, मन, धन सर्वस्व समर्पित, इन गुरु चरणों की बेला में।
दे दो नाथ अब आश्रय हमको, शिष्य तो रहते गुरु-भक्ति में।।
परम शान्ति के श्रोत गुरुदेव, आप भत्तफों की शुभ आस हो ।।
प्रेमचन्द शर्मा और ब्रजनन्दन लाल भी यों कहने लगे।
रो-रोकर हम अश्रु बहाते, गुरु-चरण धूलि में हम रमने लगे।।
मुत्ति-धाम की हम करें, प्रार्थना, अब गुरुदेव हमारा पुनर्जन्म ना हो ।।

गुरु-नमस्कार

नमो अनादि ब्रह्म अरूप अनाम।
भई आप इच्छा रचे सर्व धाम।।
न जाने नाम कोई करे कौन ध्यानम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम् ।।1।।
नहीं वेद ब्रह्मा, नहीं विष्णु ईश।
नहीं पंच-तत्व, नहीं थे अहींश।।
नहीं जोत रूप, नहीं माया करालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।2।।
नहीं देव देवी, नहीं सूर्य प्रकाश।
नहीं चन्द्र तारा, नहीं कोई आकाश।।
न तो स्वर्ग, भूलोक नहीं पातालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।3।।
जहाँ आप इच्छा, मांही शब्द गाजे।
विदेह स्वरूप, अनूप विराजे।।
भई शब्द ते, सर्व लोके विशालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।4।।
तू हि सच्चिदानन्द, लोके प्रकाशा।
सदा सर्वदा हंस, करते विलासा।।
तहां आप से, आप प्रकट सुकालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।5।।
भयो तेज रूप, सभी विश्व काँट्यो।
गुरु जी, गुरु जी ही, सब सृष्टि जाप्यो।।
सुनी दीन वाणी, भये हैं दयालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।6।।
तभी नाथ नर रूप, अवनि सिधारे।
रख काल रूप, सभी को उभारे।।
महादीन दासे, सो करते कृतार्थम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।7।।
करे कौन तेरी, प्रशंसा सुवानी।
थके विष्णु ब्रह्मा, महेश भवानी।।
थके शेष गण, नाथ वाणी विशालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।8।।
न काहू कहो नाथ, तुम पार पायो।
अनादि, अगम् और निगम् बतायो।।
तू ही निर्गुण, सगुण रूप धारणम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।9।।
तू ही कोटि कोटिन्ह, ब्रह्माण्ड कीनो।
तू ही सर्व को, सर्वदा सुख दीनो।।
बसे सर्व में, सर्व रूप दयालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।10।।
सभी सन्त कारण, तो ही बतावें।
एक ही वेद ब्रह्मनाद, षठ-शास्त्रा गावें।।
जपे नाम तेरो, भजें जे विश्वेशरम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।11।।
लहे ज्ञान-विज्ञान के बल्य-पुर।
महा मोह-माया रहे ताहीं दूर।।
लखे ता है डरिये, माँ ही चित्तकालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।12।।
विनय दास पफरियाद की चित्त दीजे।
प्रभुदास को दास, तो मोहे कीजे।।
सदा दीन के तुम, हरो दुःख उद्धारम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।13।।
गुरु उग्रानन्द जी कहते हैं अगम कहानी।
सुनो रमेशचन्द्रानन्द तू बन ब्रह्म-ज्ञानी।।
योग से ही फटे है, काल के कपालम्।
नमो ऽहं, नमो ऽहं, गुरु ही त्रिकालम्।।14।।

गुरु-स्वरूप ध्यान

नमो नमः गुरु रूप को, आदि अन्त तेहि नाहीं।
सो साक्षी मम रूप है, तिस में संशय नाहीं।।
अविगत, अविनाशी, अचल, व्यापत रहियो सब मांही।
जो जाने अस रूप को, मिटे जगत भ्रम तांही।।
गंगा निकट है ग्राम भोजकट दरावर।
जिस पर योगी जन होत न्यौछावर।।
पावन भूमि में जन्म लेकर।
बड़े हुए गुरु को सब वुफछ देकर।।
रमेशचन्द्रानन्द मम् योगी गुरुदेव हैं।
आत्म चित्त जो मुनिवर मुनि हैं।।
योग युगत अरु कर्म-निष्ठ हैं।
अजर, अमर, सर्वज्ञ, समर्थ हैं।।
ऐसे गुरु-स्वरूप को, करके अर्पित अर्चना।
धन्य-धन्य पुकारती, भत्तफों की अन्र्तात्मा।।

Monday, April 6, 2009

अर्ध्य


परम पिता परमेश्वर यशोदानन्दन द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि _
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्,
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।
अर्थात् जब-जब भी भारतवर्ष में धर्म का लोप व अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मुझे सत्पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए तथा धर्म की स्थापना करने के लिए, अपने रूप को रचना पड़ता है अर्थात् अवतार लेकर विश्व-कल्याण हेतु भारत-भूमि पर अवतरित होना पड़ता है।
परम पिता परमेश्वर ने इसी परम्परा के अन्तर्गत भोजकट दरावर, जिला बुलन्दशहर, राजपूत-लोधवंश, बड़-गूजर गोत्र में रघुकुल तिलक श्री राजाराम जी के घर, माँ सोमती की भुवन-कोख से एक अलौकिक शक्ति का सृजन किया, जिसने माँ के आँगन को सभी प्राकृतिक-सौन्दर्य व दैविक-शक्तियों से ओत-प्रोत कर दिया। बचपन में बालक का नाम ‘हेतराम’ रखा गया। अन्य अवतारों की तरह इस शिशु को भी जन्मजात-सिद्धि प्राप्त थी। अतः बाल्यावस्था में ही इसने गृह-त्याग किया। वनखंडों में नंगे पैर अर्धनग्नावस्था में घूमना, गउएँ चराना, तपस्या करना, कभी निराहारी, कभी दूधाहारी, कभी फलाहारी तो कभी केवल पेड़ों के पत्ते पीस-पीसकर खाना, इस प्रकार इसने अपना जीवन-यापन किया। भारी तपस्या, त्याग, वैराग्य, मौन-व्रत, चिन्तन-मनन तथा अखंड योग-साधना में रमने वाले, इस कालगुँजार बालक का नाम आगे चलकर, गुरु-आज्ञानुसार ‘स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज वनखंडी’ पड़ा।
हमने बड़े-बड़े ऋषियों, महात्माओं व मुनि-विद्वानों से, जो कि प्रायः भारतवर्ष का भ्रमण करते रहते हैं, स्वामी जी के बारे में ये कहते हुए सुना है कि मां भागीरथी पावन-गंगा जहाँ से अवतरित हुई हैं और जहाँ जाकर विसर्जित हुई हैं, उसके बीच में गंगा-किनारे इतना उंचा अन्य कोई ‘योगी’ विद्यमान नहीं है, जो आज भी विश्व की चकाचैंध से परे समस्त मौलिक, भौतिक व लोलुप-संपदाओं का त्याग करके ग्राम भैंसोड़ा-चाँदनेर, जिला बुलन्दशहर के भूड़-रेतों भरे जंगलों में अपनी अनवरत ‘तपस्या’ में ध्यानस्थ है। जिसके जप-तप की पताका आज भी क्षितिज में लहराती है।
गुरुदेव के कथनानुसार पुरुषार्थी जन्म में नहीं अपितु ‘कर्म’ में विश्वास रखते हैं। हमें जन्म-भोगी नहीं अपितु कर्म-भोगी होना चाहिए। कर्म और ज्ञान, इस मानव-रूपी सिक्के की दो सतह हैं। जिस प्रकार हंस अपने दो पंखों की सहायता से ही उड़ सकता है उसी प्रकार प्रत्येक मानव को अपना जीवन ‘सार्थक’ बनाने के लिये मृत्युपर्यन्त कर्म और ज्ञान में आरूढ़ रहना चाहिए। पूर्व जन्मों के संचित ‘सत्कर्मों’ से ही मानव-जीवन मिलता है। इसका अधिकाधिक सदुपयोग करना हमारा धर्म है। मानव-जीवन प्राप्त करने के लिए देवलोक के देवगण भी अभिलाषा रखते हैं। इसे हमें निरर्थक नहीं व्यतीत करना है। शुभ आचार-विचार रखो। जप-तप, दान, त्याग-वैराग्य सदैव अपनी सामर्थ्यानुसार करते रहो। कोई भी ‘कर्म’ शुरू करो तो तब तक करते रहो, जब तक उसका अन्त ना हो जाये अन्यथा वह तुम्हारा ही अन्त कर देगा। भोग में नहीं, योग में विश्वास करो। चिन्ता नहीं, चिन्तन करो। मनोकामनाएँ नहीं, मनन करो।
सभी प्राणियों में ‘ईश्वर’ एक ही रूप में शाश्वत है। सभी ईश्वर की एक चिंगारी-मात्रा हैं, पिफर भेदभाव कैसा और किसलिए? सदैव सुसभ्य एवं सुसंस्कृत रहिए।
विद्यालय विद्या नहीं अर्थात् ये जरूरी नहीं कि वहाँ विद्याध्ययन करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी प्रकांड-पंडित हो जाये। मन्दिर-मस्षिद भगवान नहीं अर्थात् जरूरी नहीं कि वहाँ जाने वाला प्रत्येक ‘प्राणी’ ईश् भक्ति में लीन हो जाये। ये सभी तो कर्म और प्रारब्ध के धरोहर हैं। ईश्वर, ज्ञान और कर्म को कहीं भी प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है तो केवल दृढ़-प्रतिज्ञा, दृढ़-संकल्प, उत्कंठा तथा परम् में अटूट-आस्था की। जीवन में सदैव गरिमा व शिथिलता का त्याग करो।
वो प्राणी विरले व अत्यन्त भाग्यशाली होते हैं जिन्हें अपने जीवन-काल में किसी योगी-सद गुरुदेव की छत्राछाया प्राप्त हो जाती है जिससे उन्हें इस मृत्युलोक-रूपी लख-चैरासी ‘भवसागर’ से पार उतरने में क्षण-मात्रा भी नहीं लगता। लेकिन ये भी सत्कर्मों व भाग्य से ही मिलता है। हमने तो स्वयं कई बार देखा है कि भाग्यशाली व्यक्ति जो कि ईश्वर की अभेद्य-माया को समझते हैं, वो ही ‘गुरुदेव’ के दर्शन कर पाते हैं। गुरुदेव के इर्द-गिर्द किसी दुराचारी, अत्याचारी, व्यभिचारी या समकक्ष मनुष्य की ताकत ही नहीं होती कि वो उनकी कुटी तक पहुँच जाये। ये ‘गुरुदेव’ की ही लीला है जो प्रत्यक्षदर्शियों की मानव-अभिव्यत्तिफ से परे की गाथा है। तभी तो कहा है कि_
स्त्री चरित्रम्, पुरुषस्य भागम्,
देवो न जानो, कोतू मनुस्यते।
‘ईश्वर’ सर्वत्रा विद्यमान है। कण-कण में उसका बसेरा है। मानव-जीवन में कुछ भी घटित होता है, वह विधि के विधान अनुसार ही होता है। हम इसे भी समझ नहीं पाते। हमारे जीवन में यदि कुछ अच्छा काम होता है तो उसका ‘श्रेय’ हम अपने को दे देते हैं कि यह तो हमारे परिश्रम का प्रसाद है और यदि कोई अप्रिय घटना घटती है तो कह देते हैं कि भाई - ‘‘जैसी प्रभु की इच्छा होगी, वैसा ही तो होगा।’’ कैसी विडम्बना है? ये सब कुछ साक्षात देखते हुए भी कितने सहनशील, सहिष्णु व दयालु हैं प्रभु? ये प्रभु की महानता की पराकाष्ठा है। यदि हम अपने जीवन में प्रभु के इस उपदेश को अपना लें कि ‘‘कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है, फल परमात्मा की इच्छा’’, तो इससे हमारे जीवन में चिन्ताओं की एक गूढ़-गुत्थी स्वयमेव सुलझ जायेगी। लेकिन इसके लिए विश्वास व दृढ़-संकल्प की परम आवश्यकता है।
गुरुदेव का यह ‘योग-ग्रंथ’ उनके अनन्त-उपदेशों, ओजस्वी-विचारों व तेजस्वी-जीवन के प्रायोगिक-अनुभवों व प्रेरणाओं का मात्रा सूक्ष्म-संकलन है। जीवन को सार्थक बनाने वाले प्राणियों के लिए, ये एक अमृत-कलश है।
स्वामी जी के कथन व उपदेश, समुद्र की उन लहरों के समान हैं जो पृथ्वी पर प्रवाहित होते हुए भी सदैव क्षितिज को स्पर्श करते रहते हैं। इसमें कोई संशय या असमंजस नहीं कि मनुष्यों की आकाँक्षाओं का अन्त, सर्वदा योगियों की चरण-धूलि में ही निहित होता है। ऐसे पुरुषों के लिए यह ‘ग्रंथ’ एक अमूल्य धरोहर है।
स्वामी जी का यह ‘योग-ग्रंथ’ उनके परम-प्रताप से, उन्हीं के तत्वाधान में सृजित किया गया है। अनुवादकों व शिष्यों का इसमें तनिक भी योगदान नहीं। स्वामी जी की वाणी का अनुवाद करने वाली तो कोई अदृश्य-शक्ति है। हमारी भूमिका तो केवल एक आज्ञाकारी-सेवक व अनुवादक-मात्रा है। ‘ग्रंथ’ सृजन करते समय, हमें तो कुछ ऐसी अनुभूति रही कि किसी अदृश्य-शक्ति के आदेशानुसार हमारी लेखनी चलती रही और जब ‘स्याही’ समाप्त हुई तो लेख ‘महायोग-ग्रंथ’ का रूप धारण कर चुका था।
निम्न-पद्यांश द्वारा पाठकों के सम्मुख हम गुरुदेव तथा अपनी मनोस्थिति को विस्तार में चित्रित कर रहे हैं_
गुरु ज्ञान का अनुवाद, कैसे भला हम कर सकें,
गुरुदेव तो सर्वज्ञ हैं, मनन हम कैसे कर सकें।
जन्मजात सिद्धि साथ है, पुनः कथन कैसे कर सकें,
गुरु ज्ञान अथाह सागर है, हम उजागर कैसे कर सकें।
बचपन से ही वनोवास है, ऋषि-मुनियों का संग साथ है,
गंगा तीरे गऊएँ चराते, मन भत्तिफ प्रसंग का वास है।
हम लिखते-लिखते लिख रहे, बुद्धि से परे की बात है,
आँखों से अश्रु बह रहे, अरु हाथ भी कंपात है।
प्रेमचन्द शर्मा कह रहे, ब्रजनन्दन लाल भी साथ है,
गुरुदेव की अनुकम्पा हो रही, ग्रंथ स्वतः लिखत जात है।
लो वर्षा ऋतु भी आ गयी, गरज बादल में पड़ने लगी,
वर्षा घनेरी के आंगन में, सीरी समीर बहने लगी।
पृथ्वी जल अथाह बहे, लहरें उमड़ती थीं भयावनी,
जब तूफानी जल वेग से बहता, बनती थीं भँवरें लुभावनी।
शरद ऋतु का फिर आया वासा, जल हिमखंड सा बन गया,
ओलावृष्टि पाला पड़े था, सुहावना शीतल मौसम बन गया।
स्नान करें तो कम्पन आती, फिर जमकर योग कैसे करें,
गुरु-वाक्य घोर तपस्या को, भला हम कैसे तज सकें।
हो मृत्यु का भी सामना, विरले ही योग कर सकें,
पांच वर्ष तक गुरु-वाक्य पर, माँ सोमती ही चल सकें।
सर्दी गर्मी वर्षा सही, वीरान वन में रह गयी थी,
योगी-सुत के सृजन हेतु, कष्ट करोड़ों सह गयी थी।
बड़े भाग्य उन मात-पिता के, योगी-सुत जो जनते हैं,
जन्मदात्री मातृभूमि को, विश्व में विख्यात कर जाते हैं।
वनखण्ड घोर संकटों में, हर कोई ना तपस्या कर सके,
गुरु-वाक्य में ही शक्ति यह, सिंह बघेरा भी साथ रह सके।
हमको न कोई भय यहाँ, गुरु-वाक्य पर निर्भय रहें,
गुरु-आज्ञा पर जो जम गया, मुक्ति उसके अधीन रहें।
कहें प्रेमचन्द शर्मा, योग बिना मुत्तिफ नहीं है,
मानते ब्रजनन्दन लाल भी, भक्ति बिना शक्ति नहीं है।
मर जायें पीछे ना हटें, गुरु आज्ञा जो हैं धारते,
साक्षात ईश्वर से करें, ये राज गुरु-भक्ति जानते।
धर्म कर्म नीति जो गुरुवर कहें, हटना उनसे पीछे नहीं है,
भवसागर गुरुदेव ने सुखा दिया, अब तरने की जरूरत नहीं है।
कहना सरल, करना कठिन, गुरु-आज्ञा चित्त में समा ली,
गुरु-वाणी के अनुवाद से हमने, इस आवागमन मुक्ति पा ली।
ग्रीष्म-ऋतु अब आ गयी, वसुन्धरा भी तपने लगी है,
लूओं के तपते झोकों से, देह सबकी झुलसने लगी है।
योगी का योग न डगमगाता, तपस्वी तपस्या करते बड़ी भारी,
तेजस्वी का तेज बढ़ जाता, ‘आत्मा’ ज्ञान से चमके न्यारी।
ग्रीष्म-ताप का सुख तो भोगो, पाप-कीटाणु होते धराशायी,
पसीना बहता झर-झर देह से, गुरु-भक्ति विरलों ने पायी।
योगी की योग क्रियाओं का, आज तक पता किसको लगा,
भूड़ों की तपती रेती में, गुरुदेव का शीर्षासन लगा।
भरी दोपहरी में जब सोती दुनिया, गुरुदेव तब जप-तप करे थे,
योग कलाओं को साधकर स्वामी, समस्त रात्रि जागरण करे थे।
गुरु-ज्ञान गरिमा गागर से, गाँभीर्य भी गद्गद हो गया,
संसार सागर का सर्वस्व सार, सुहृदय में सरसित हो गया।
सत्मर्यादा पर जो भी चला रघुकुल को विख्यात कर गया,
गुरु-ज्ञान का डंका बजाकर, विश्व का मोचन कर गया।
यों तो दुनिया में बहुतेरे, साधु-सन्त पाये जाते हैं,
गुरु-वाणी है पत्थर की लकीर, विरले ही इसे निभाते हैं।
बारम्बार वन्दनीय हैं गुरुदेव, जो सद्ज्ञान बहाये जाते हैं,
ब्रह्मज्ञान गंगा सरिता में, भक्तों को डुबकी लगवाये जाते हैं।
माँ सोमती की पावन कोख से, ऐसे ही महापुरुष आये थे,
जब अवतार हुआ था पृथ्वी पर, सारे प्राणी हर्षाये थे।
सुत जन्म ने मात-पिता को, अति उमंग हर्षोल्लास दिया,
योगी-सुत की अनोखी क्रीड़ाएँ, खुशहाली से घर भर दिया।
जब बड़े हुए तो होश हुआ, कुछ खोये-खोये रहते थे,
प्रभु दर्शन मुझको होंगे कहाँ, इस धुन में तल्लीन रहते थे।
गऊएँ चराते गंगा-किनारे, भजन वृक्ष-कुन्जों में जमा डाला,
जब पूर्व-जन्मों की तपस्या जागी, घर-बार नगर सब तज डाला।
फिर चले गुरु-योगेश खोजन को, गुरुज्ञान से भवसागर तरना है,
जब मिल जायें गुरु फिर लौटे कौन, क्या बचा जग में जो करना है।
अहोभाग्य हमारा गुरुदेव, हमें सेवा का अवसर दे रहे,
गुरुदेव असीम अनुकम्पा से, हम गुरु-वाणी का अनुवाद कर रहे।
अनुवादक
प्रेमचन्द शर्मा
ब्रजनन्दन लाल
बैंक अधिकारी