Friday, May 22, 2009

महाराजा जालन्धर

जन्म-जन्म के तपों का, उदय होता जब भान।
राजपाट को तजवाकर, गुरु करावें ज्ञान।।
योग गुरु से सीखकर, कुंडली लहें जगाय।
नभ-मंडल को चीर कर, समाधि‍ लहें चढ़ाय।।
वेद-शास्‍त्र अरु पुराणों में, भरा है अदृभुत ज्ञान।
प्रकांड पंडित तक फंस गये, रहे मूढ़ अज्ञान।।
पूर्वकाल में जालन्धर नाम के राजा कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर राजधानी में राज्य करते थे। उनका जन्म कश्यप-गोत्र के लोध-राजपूत कुल में हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही बड़े धर्मशील व न्यायप्रिय राजा थे। उनकी महारानी का नाम श्रीमती प्राणेश्वरी था। राजा और रानी दोनों ही बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराते थे तथा गरीबों की सहायता करते थे व तीर्थो की यात्रा करते थे। अनेक गरीबों की कन्याओं के शुभ-विवाह इन्होंने कराये थे। कहा जाता है कि महापुरुषों के यहाँ महापुरुष ही जन्म लेते हैं। एक दिन अचानक राजा जालन्धर का माथा, दायीं भुजा और दायीं आँख फड़कने लगी। राजा कुछ सहमे से बैठ गये। यह लक्षण उनके पूर्वकाल की तपस्या के उदय होने का सूचक था। राजमहल में बैठे राजा कुछ सोच ही रहे थे कि रानी ने आकर उनके चरणों में सिर झुकाया और कहने लगीं कि हे प्राणनाथ! आज क्या सोच-विचार कर रहे हो? राजा ने कहा, अहोकष्ट! महाकष्ट! राजपाट और मायामोह के जाल में फँसकर मैंने अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर डाला। हे रानी! मैं राजपाट को न साथ न लाया था और न ही वैभवशाली द्रव्यों को साथ ले जाऊंगा। कितने ही राजे-महाराजे इसको अपना-अपना कहकर चले गये। ये सभी तो इस नश्वर संसार की धरोहर हैं। राजा के ऐसे विचार सुनकर प्राणेश्वरी को भी कुछ भ्रम सा हो गया और वे भी शान्त-भाव से सोचने लगीं कि अहोभाग्य हैं हमारे जो राजा के मन में इस संसार के वैभवशाली द्रव्यों के प्रति घृणा उत्पन्‍न हुई है। अब हमारे पूर्वकाल के संस्कारों का फल उदय होने वाला है। यह सोचने में कुछ ही समय बीता था कि उनके महल में कुल-गुरु श्री श्री 108 श्री बालखिल्ले जी का आगमन हुआ। द्वारपाल ने गुरु महाराज के आने का सन्देश राजा को पहुँचाया। सन्देश सुनते ही राजा व रानी दोनों दौड़े चले आए और गुरुदेव को सादर साष्टाँग प्रणाम किया। उनके चरण धोकर चरणामृत लिया और भोजन आदि से तृप्त कराके उन्हें राजसिंहासन पर विराजमान कर दिया । यह दृश्य ठीक उसी प्रकार दृष्टिगोचर हो रहा था जैसे कि राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में विश्वामित्र जी आ गये हों।
कुछ समय उपरान्त गुरु महाराज ने चारों तरफ निहारकर कहा, हे राजन~! मुझे दृढ़ शंका के साथ यह कहना पड़ रहा है कि तुम्हारे राज्य में आज कुछ अशान्ति है। ऐसा क्यों? स्पष्ट कीजिए?
गुरुदेव के ऐसे शंका भरे शब्दों को सुनकर राजा करबद्ध होकर कहने लगे, हे महायोगेश्वर जी! मैंने देश-देशान्तरों की यात्रा की है, यज्ञ, अनुष्ठान भी कराये हैं, गरीबों की कन्याओं के विवाह-संस्कार भी किये हैं, आपके नाम का सदैव ‘जाप’ भी करता हूँ किन्तु फि‍र भी मेरा मन अशान्त है।
गुरु उवाच, हे राजन~! इस प्रकार के करमो से मानसिक शान्ति नहीं मिलती। वह तो तपस्या व त्याग से ही मिलती है। राजन बोले, हे पूज्य गुरुदेव! मेरा मन इस सारे राज्य को त्यागकर ‘तपस्वी’ बनना चाहता है। अत: कृपा करके मुझे वह मार्ग दर्शा दीजिए जिससे मुझे मानसिक शान्ति प्राप्त हो जाये। राजा के ऐसे भक्‍ति‍ भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी उनके ललाट पर देखने लगे। क्षणोपरान्त गुरुदेव कहने लगे, हे नरश्रेष्ठ! तेरी पूर्वजन्म की तपस्या का उद्यान अब खिलने लगा है। इस तरह का वैराग्य होना तो बड़े भाग्य की बात है। तेरे ललाट को देखकर मैं यह जान गया हूँ कि अब तुझे कोई भी शक्‍ति‍ वनखंडों में जाने से नहीं रोक सकती क्योंकि जब पूर्वजन्म की तपस्या अपने संस्कारों को उदय करती है तो भूमण्डल की सारी शत्तियां सिमटकर चरणों में आ जाती हैं अन्यथा कौन इस वैभवशाली संसार को त्यागने के लिए तैयार है? जो जहाँ पर बँध पड़ा है वहीं पर इस माया ने उसे जकड़ लिया है। हे राजन~! आज तेरे पुण्य कर्म उदय हो रहे हैं। तेरे हाथ में जो योग की रेखा पड़ी है ये उसी का प्रभाव है। इस कौतुक को देखकर महारानी प्राणेश्वरी से न रुका गया और योग की इस अग्नि से व्यावुफल होकर महारानी ने भी अपना मस्तक गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। यह रानी के पतिव्रता होने का प्रमाण था। महारानी कहने लगी कि आप जैसे महायोगेश्वर गुरु हमारे सन्मुख खड़े हैं जो मुत्ति-धर्म के दाता तथा महान शत्तिशाली हैं। ऐसा अवसर हमें कब और कहाँ मिल सकता है? हमारी आकांक्षा इस राजपाट व वैभव से तृप्त हो चुकी है। हे गुरुदेव! यह तो एक दिन मरते समय भी छोड़ना पडेगा। यदि यह सब आपके चरणों में अभी छूट जाये तो इससे अच्छा अवसर और क्या होगा?
राजा और रानी के भत्ति भरे शब्दों को सुनकर गुरु बालखिल्ले जी ने सिपाहियों को बुलवाया और समस्त राज्य में ये घोषणा करा दी गयी कि आज से राजा राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे। वह आज से सन्यासी कहलाएँगे तथा वनखंडों में तपस्या हेतु चले जाएँगे। सूचना पाते ही सब देशवासी दौड़ पड़े और खाने-पीने का प्रबन्ध होने लगा।
राजा के पुत्रा ‘सर्वांग सुन्दर’ को भी वहाँ बुलवाया गया। गुरु बालखिल्ले जी ने विधि-विधन पूर्वक राज्य का तिलक कुंवर सर्वांग सुन्दर को कर दिया। राजा व रानी ने बहुत सा धन दान किया और गुरु जी की आज्ञानुसार भगवे वस्त्र पहनकर वनखंडों को प्रस्थान कर दिया। चलते समय गुरुदेव ने कहा कि तुम्हारा जन्म सूर्यवंश के कश्यप-गोत्र में हुआ है अत: तुम्हें अधि‍क उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है।
जब गुरुदेव ने सर्वांग सुन्दर को राजसिंहासन पर बैठाया तो राजकुमार की आँखों से अश्रु-धरा प्रवाहित होने लगी। वायु ने इस समय अपना वेग छोड़ दिया और शान्ति स्थापित की। गंगा ने अपनी अठखेलियों से उछलते जल को अपनी गोद में समेट लिया। पेड़-पौधे जड़वत हो गए। देवगण आकाश से पुष्पों की वर्षा करने लगे। गुरुदेव, राजकुमार को यों समझाने लगे कि हे राजकुमार! घबराता क्यों है? तेरा राज्य तो हम गुरु-लोगों के आधार पर ही चलेगा। तुम जैसे लोगों के सहारे तो ‘धर्म’ पृथ्वी पर टिका है।आज सारी प्रजा की आत्माओं का आशीर्वाद राजा और रानी के साथ लग गया था। इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि स्वयं ‘राम’ वन को जा रहे हैं। सभी अपनी मूकवाणी से कह रहे थे कि तुम्हारी तपस्या पूर्ण हो और गुरु लोगों की परम्परा का झंडा इस लोक में और परलोक में लहराता रहे। यह धर्म और मर्यादा दोनों की परीक्षा थी। इसी बीच कुलगुरु बालखिल्ले जी अपनी योग-माया से अन्तर्ध्‍यान हो गए और राजकार्य यथोचित प्रकार से चलने लगा। राजन के वनोवास जाने की सूचना पाते ही जन-समूह में हलचल मच गयी। सबके चित्त पर ज्ञान वैराग्य की आग धधकने लगी कि विधता ने भाग्य में क्या लिखा है, कुछ पता नहीं। आज ‘राजा’ वन को जा रहे हैं, राज्य तथा राजकुमार का कोई मोह नहीं किया जैसे सर्प काँचली को त्यागकर चल देता है। राजन के त्याग वैराग्य को देखकर सभी नगरवासियों में खलबली मच गयी। जो भी जिसके हाथ में आया उसने वही दान किया। कोई पैसे बिखेर रहा था, कोई अन्‍न-दान कर रहा था, कोई वस्‍त्र दान कर रहा था। यह दशा जनता की हो गयी थी।

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