Thursday, May 21, 2009

महाराजा धर्म धुरेन्द्र

लोधवंश कश्यप-गोत्र के अध्ष्ठिाता एवं एकछत्र महाराजा धर्म धुरेन्द्र, राजधनी भोजकट दरावर के सम्राट थे। उनके राज्य में चतुर्दिक शान्ति व्याप्त थी। वे अपनी प्रजा का सन्तानवत् पालन करते थे। धन, वस्त्र, द्रव्य, भवन व गऊ आदि दान करते थे। उन्होंने अनेक अविवाहित निर्धन कन्याओं का कन्यादान करके अपनी निर्धन-प्रजा को प्रोत्साहन प्रदान किया था। राजा की प्रवृत्ति अत्यधि‍क ‘धार्मिक’ थी।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र ‘धर्म’ का राज्य करते थे। उनके राज्य में समस्त जनता महासुख की भागी थी। राजा को प्रजा ईश्वर-तुल्य मानती थी क्योंकि वो गरीबों की देख-रेख में बड़े चतुर तथा सत्य-प्रतिज्ञावान थे। जनता उनको ईश्वर करके पूजती थी। परन्तु राजा ‘सन्तान’ के अभाव में अशान्त रहते थे। उनकी पत्नी ‘माया सुन्दरी’ एक पतिव्रता रानी थी। वह राजन को प्राणों से भी प्यारी थी। ऋषि-मुनियों की सेवा में वह सदा तत्पर रहती थी।
सन्तान के अभाव में राजा व रानी, ऋषियों के दर्शन हेतु भ्रमण करने लगे। घूमते-घूमते वे एक योगेश्वर जी के आश्रम में पहुंच गए। योगी जी के आश्रम को देखकर राजन आश्चर्यचकित रह गये। ‘योगी’ के ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और त्याग की अथाह शक्ति देखकर, राजन को कुछ भक्ति-रस का नशा सा छा गया। राजा व रानी ने फल-फूल भेंटकर योगेश्वर जी को प्रणाम किया तथा शान्त-चित्त खड़े रहे। योगीराज ने उनकी तरफ देखा तो उनकी श्रद़धा व भक्ति देखकर उन्हें बैठने का संकेत किया और कहने लगे, कहिए राजन्! कहाँ से आगमन हो रहा है? राजा करबद होकर बोले, ‘‘हे योगेश्वर जी! मैं आपका नाम सुनकर आपकी चरण-रज में उपस्थित हुआ हूँ। हम भोजकट दरावर कुन्दनपुरी राजधनी के रहने वाले हैं। धर्म धुरेन्द्र मेरा नाम है तथा रानी का नाम माया सुन्दरी है।’’ मुनिवर बोले, ‘‘राजन्! आप कुछ अशान्त से प्रतीत होते हो।’’ राजा कहने लगे, ‘‘ऋषिराज! अशान्ति का तो ऐसा कोई कारण नहीं है परन्तु हमारे राज्य की बागडोर हमारे बाद कौन सँभालेगा? ना जाने वह कैसा राजा होगा? क्योंकि महाराज! हमारे कोई राजकुमार नहीं है।’’ योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे नरेश! तुम्हारे साथ में तो ऋषि-मुनियों का आशीर्वाद लगा हुआ है। राजन्! तेरा तो उच्च-कुल है। इसमें बड़े-बड़े योगियों व धर्मात्माओं का जन्म हुआ है। हे राजन्! धर्मात्मा होने के नाते, मैं अब तुम्हें समझाता हूँ। यदि मेरे मार्गदर्शन के अनुसार तुमने साधन नहीं किए तो देख लेना तुम्हारे यहाँ असत्यवादी बच्चा होगा।’’
‘‘देखो राजन्! स्यालकोट में राजा सिंहवटी ने गुरु गोरखनाथ सहित उनके चौदह सौ चेलों को संगीनों के पहरे में अपने बाग में रखकर, चौबीस वर्ष तक उनकी सेवा की, तब कहीं जाकर ‘पूरनमल’ जैसा सती व यती पुत्र, रानी के गर्भ से पैदा हुआ जो अपना व अपने कुल का नाम आकाश में लहरा गया तथा सदा के लिए मोक्षपद को प्राप्त हो गया।’’ इतना सुनकर राजा व रानी ने रोते हुए अपने मुकुट, योगी जी के चरणों में रख दिए।
राजवंश को देखकर, राजा हो भ्रमन्त।
सोचा मरने के बाद, कौन करे राजन्त।।
ये बातें सोचकर, जायें ऋषियों के पास।
पूर्वजन्म के तपों से, गुरु-शरण मिल जात।।
राजपाट अर्पित किया, रघुकुल अपनी रीत।
करबद्ध हो सम्मुख खड़े, तपने चले प्रीत।।
वचन सुनत राजेश के, मुग्ध् हुए ऋषिराज।
राज चले कुल-वंश से, ये निश्चय कर साज।।
तत्पश्चात् योगी महाराज कहने लगे, ‘‘हे राजन्! तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति ने तो मेरे शासन को भी हिला दिया। अब तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
‘‘हे नरेश! तुमको और रानी को तीन वर्ष तक पृथ्वी-तल पर सोना होगा। कन्दमूल फल का खाना होगा। राजवंश का त्याग करना होगा। परिश्रम से अर्जित ‘अन्‍न’ ग्रहण करना होगा। पैरों तथा अँगूठे के बल, तपस्या करनी होगी। ब्रह्मचर्य से रहना होगा। नित्य प्रति गंगा-स्नान करना होगा। हे राजन्! तुम्हारी तपस्या जब पूर्ण होती जायेगी तो भक्ति में शक्ति बढ़ती जायेगी। जब तपस्या की सीढ़ियाँ निकट आती जायेंगी तो जो सर्वशक्तिमान् ‘ईश्वर’ है उसका सिंहासन हिलने लगेगा। तभी समझ लेना कि तुम्हारी तपस्या ‘पूर्ण’ हो चुकी है।
‘‘हे राजन्! अनूपशहर से लेकर पूठपुरी-पुष्पावती तक के वीरान वनखंडों में गुप्त-रूप से कालगुँजार योगी विचरते हैं। किसी भाग्यशाली को ही उनके दर्शन होते हैं। यह क्रम, सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। जब किसी को उनके दर्शन होते हैं तो बड़े भाग्य व भयानक रूप से होते हैं। देखो! अतीत में अनूपशहर में सत्यवादी राजा चकवेबैन हुए हैं। कुन्दनपुरी में सीता-अवतार रुक्मणी हुई हैं तथा पूठपुरी-पुष्पावती में अटल प्रतिज्ञावान ध्र्रुव-भक्‍त का जन्म हुआ है। वैसे तो योगीजन हर जगह घूमते रहे हैं जहाँ इनका मन चाहता है, परन्तु अधि‍कतर उपरोक्त कहे गए क्षेत्र में ही विचरते हैं। इन कालगुँजार योगियों के दर्शन, गंगा से निकलते हुए अथवा अपनी आँतों को धेते हुए या किसी सिंह की हड्डियाँ चाटते हुए या मृत-पशुओं को खाते हुए होते हैं। ये मैं तुम्हें उनकी शक्ति समझा रहा हूँ। कभी बालक के रूप में स्नान करते हुए मिलते हैं। यदि वे तुम्हें प्रसाद दे दें तो समझ लेना कि तुम ‘पुत्रेश-यज्ञ’ के अधि‍कारी हो गये हो। इसके बाद राजा व रानी, योगी जी के चरणों में सादर साष्टाँग-प्रणाम करके तथा आज्ञा लेकर अपने राजमहल को वापिस चले आए।
उसी समय से राजा व रानी ने अपने आपको योगी के कथनानुसार इतना बांध् दिया, जिस प्रकार सिंह को कटघरे में बन्द कर देते हैं। जैसे-जैसे राजन भक्ति में आगे बढ़ते गए, वैसे-वैसे ही उनकी योग-शक्ति बढ़ती चली गयी। योगी के वचनों का समय भी समीप आता गया तथा ईश्वर का सिंहासन भी हिलने लगा। एक दिन राजा व रानी ओघट-घाट पर नहाने जा रहे थे। ईश्वर का विधान अनुकूल था। क्या देखते हैं कि वही कालगुँजार योगी एक मरे हुए मृग में से माँस निकाल-निकालकर खा रहे हैं। उन्हें देखकर दोनों की खुशी का पारावार ना रहा। राजा व रानी दोनों करबद्ध होकर एक टाँग से खड़े हो गये। क्षणोपरान्त जब योगी जी ने उनकी तरफ देखा तो उन्हें संकेत किया। दोनों बड़े उत्साह के साथ भागते हुए उनकी ओर गये। योगी जी ने उन्हें मृग के शरीर में से माँस का एक बकुटा भरकर दे दिया। तत्पश्चात् दोनों ने योगी जी को प्रणाम किया और फि‍र गंगा-स्नान को चले गये। शक्तिशाली महाराज जी के दिए हुए प्रसाद को जब उन्होंने गंगाजी के घाट पर खोलकर देखा तो उसमें इतना स्वादिष्ट-भोजन था कि वैसा ना कभी खाया न खाने की आशा की। राजा व रानी ‘प्रसाद’ को खाकर अपने महल को चले आए। दोनों सदैव ‘गुरु’ के ध्यान में ही मग्न रहते थे। कुछ समय पश्चात समयानुसार तपस्या व गुरु-आशीर्वाद के प्रताप से उन्हें ‘सत्यदेव’ नाम का सुत प्राप्त हुआ।
महाराजा धर्म धुरेन्द्र साधरण राजा नहीं थे। वे दृढ़ प्रतिज्ञावान थे। अपने वचनों से कदापि पीछे हटने वाले नहीं थे। उनके गुरु का नाम ‘झिलमिला तीर्थ’ था। कुन्दनपुरी में फाल्गुन मास में अम्बकेश्वर मन्दिर पर मेला लगता है तथा काँवर चढ़ते हैं। इसी पर्व पर एक समय का वृतान्त है कि सभी नगर-वासी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। खेतों में पका हुआ अनाज खड़ा था। यकायक राजा धर्म धुरेन्द्र ने बादल की ओर देखा। समस्त ‘बादल’ ओलों से भरा हुआ था। राजा ने सोचा कि यदि वर्षा तथा ओलों से फसल नष्ट हो गयी तो मेरी प्रजा क्या खाएगी? तुरन्त उन्होंने गुरु-मंत्र का उचित-रूप से स्मरण किया तथा ‘गुरु’ का ध्यान किया। उन्होंने आकाश में भागते हुए समस्त बादलों को एकत्रित करके गंगा जी की रेती में गिरा दिया। राजा के इस कौतुक को देखकर प्रजा अत्यन्त प्रभावित हुई इस घटना के पश्चात् प्रजा, राजा को ईश्वर-तुल्य मानने लगी।
देख सुख-सम्पत्ति राजपाट, राजन को होत वैराग्य।
पूर्वजन्म के तपों से, राजन राजपाट करते हैं त्याग।।
जब राजन को पूर्ण सुख प्राप्त हो चुका तो राज्य करते-करते पूर्वजन्म की तपस्या ने उनके चित्त में ऊफान लिया। राजा कहने लगे कि अहोकष्ट! महाकष्ट! राज्य-सुख के लिए मैंने अपने वंश को चलाने हेतु घोर तपस्या की। गुरु महाराज ने वो भी पूर्ण की। अब हमें क्या करना है? जब हमारे पूर्वज भी इस राजपाट को अपने साथ नहीं ले गये तो क्या ये हमारे साथ जायेगा? रानी ने राजा को वैराग्य से भरा हुआ देखकर कहा कि, ‘‘प्रभु! आप समस्त रात्रि क्यों बैठे रहते हो?’’ बहुत आग्रह करने पर राजा बोले, ‘‘रानी! राज्य से अब मेरा मन विरक्त हो चुका है। राज्य-त्याग के लिए अब मेरा मन व्याकुल है।’’ इतनी बात सुनते ही रानी, राजा के पैरों में गिर पड़ी। कहने लगी, ‘‘प्रभु! ये तो आपने मोक्षपदगामी बात कही है। सन्तान तथा राजपाट से किसका नाम चला है। हे राजन्! यदि आप वनखण्डों में मुझे नहीं ले गए तो मैं आपके जाते ही सती हो जाऊंगी। मैं पतिव्रता नारी हूँ।’’ रानी की इतनी बात सुनकर राजा को महा-सन्तुष्टि हुई राजन सोचने लगे कि मैंने तो केवल राज्य-त्याग का ही संकल्प किया है परन्तु रानी का वैराग्य तो मुझसे भी बढ़कर निकला। फि‍र राजन सोचने लगे कि जो राजा बनकर राज्य में ही रहते हैं तथा राज्य में रहकर ही मर जाते हैं, वे राजा नर्कगामी होते हैं। अर्थात् उन्हें स्वर्ग नहीं मिलता। राज्य तो एक नर्क के समान है।
अतः राजा व रानी ने मंत्रणा करके अपने गुरुदेव श्री झिलमिला तीर्थ को सादर आमंत्रित किया। दोनों ने सादर साष्टांग-प्रणाम करके गुरुदेव को राजसिंहासन पर आसीन किया। गुरु महाराज को सप्रेम भोजन कराके राजा व रानी कहने लगे, ‘‘हे गुरुदेव! अब हमारा ‘मन’ राज्य से विरक्त हो चुका है। अब हम वनखण्डों में तपस्या हेतु जाना चाहते हैं।’’ राजा व रानी की बात सुनकर गुरु महाराज शान्त-चित्त बैठे रहे। कुछ देर बाद गुरुदेव बोले कि ‘‘तुम्हारी पूर्वजन्म का तपस्या की फूल खिल चुका है। ये जो तुमने सोचा है, ये तो बड़े सौभाग्य की बात है। अब आप संस्कार-विधि‍ से अपने सुत को बुलाकर उसका राजतिलक कराओ। गुरुदेव के आदेशानुसार राजा ने अपने सुत ‘सत्यदेव’ को बुलाकर उसका राजतिलक करा दिया तथा उसे राजसिंहासन पर पदासीन करके राजा व रानी मनोवांछित दान करने लगे। बहुत द्रव्य लुटाया गया । गरीबों को वस्त्र तथा अन्‍न दिया गया। दान आदि से निवृत्त होकर राजा व रानी ने भगवे वस्त्र धारण किये। इसके बाद राजा व रानी ने गुरु महाराज के चरणों में मस्तक झुकाया तथा गुरु से आशीर्वाद लेकर कहा कि ‘‘महाराज! इस भेष की गरिमा व लाज रखने की हमें शक्ति प्रदान करें। अब हम कभी भोजकट-दरावर कुन्दनपुरी लौटकर नहीं आएँगे। ये हमारी सूर्यकुल की अटल-प्रतिज्ञा है।’’ इतना कहकर राजा व रानी ने वनखण्डों के लिये सहर्ष प्रस्थान किया।

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