Friday, April 17, 2009

तपोभूमि कुन्दनपुरी का महात्म्य

द्वापर-देव भगवान श्री कृष्ण की प्रसिद्ध ससुराल, महानगरी कुन्दनपुरी जो अतीत में कुण्डिनपुरी नाम से समस्त भूमण्डल पर विख्यात थी, आज भी पावन गंगा मैया की गोद में बसी हुई अपने प्राचीन इतिहास को दोहरा रही है। इसकी कीर्ति-गाथाएँ आज भी गंगा की पावन लहरों में गूँजती है। कुन्दनपुरी का कीर्ति-स्तम्भ कभी भी धूमिल नहीं पड़ेगा। उसका अमर इतिहास गंगा-माँ की धराओं के अनवरत हिलोरों में सतत् निखरता रहता है। ‘कुन्दनपुरी’ नाम की सार्थकता आज भी इस भूमि में पूर्ववत् विद्यमान है। जिस पवित्र देवस्थली की देहलीज में पैर पड़ते ही नास्तिक पुरुष की आत्मा में भी भत्ति-प्रवाह उमड़ उठता है, उसके समस्त मनोविकार, मानसिक अशान्ति, विद्वेष एवं दुर्भावनाओं का क्षण-मात्रा में ही विनाश हो जाता है, ऐसी देवस्थली के कण-कण को शत्-शत् प्रणाम, शत्-शत् नमन।
शत्-शत् बार नमन, सर्वदा उन सत्पुरुषों की शक्ति को।
राजपाट, सुख-सम्पत्ति, सब अर्पित कर दी जिन्होंने गुरु-भक्ति को।।
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के प्रसिद्ध् जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर, उत्तरी दिशा में राजकीय-मार्ग पर बसा ये ग्राम कुन्दनपुरी आज ‘आहार’ नाम से प्रसिद्ध् है। गंगा-माँ के आंचल में बसा ये नगर, कलयुग का कल्पवृक्ष बनकर ‘ भक्त श्रद्धालु सत्पुरुषों की मनोभिलाषाओं व आकाँक्षाओं की पूर्ति में सक्षम है। जगदम्बे मातेश्वरी अवंतिका देवी गंगा-माँ की गोद में यहाँ विराजमान हैं, जिनके दर्शन हेतु वर्ष भर में असंख्य भाग्यशाली भक्त लोग आते हैं। आहार-वासियों का कहना है कि आज भी नवरात्रों की उपवास अवधि में एक शेर शक्ति-पुँज महारानी अवंतिका देवी के मन्दिर में पदार्पण करके भक्ति-पूर्वक प्रणाम करता है और फिर तीन बार दहाड़ मारकर, गंगा-माँ के घनघोर वनखंडों में अदृश्य हो जाता है। कुन्दनपुरी, भगवान श्रीकृष्ण के ससुर महाराजा भीष्म की राजधानी थी। यहाँ गंगा जी के किनारे-किनारे ऊबड़-खाबड़ टीलों पर बसे जंगल की शोभा ‘अद्वितीय’ है। महाराजा भीष्मक के राजमहल, शाही-किले व समस्त राजकोष जो कि कालान्तर में इन्हीं टीलों के गर्भ में समा गये थे, उनके खंडहर-अवशेष आज भी इन्हीं टीलों में अतीत की गाथाएँ सुनाते हैं। ऋषि-मुनियों ने अपनी-अपनी भाषा में इस तपोभूमि की कुछ इस प्रकार व्याख्या की है-
कुन्दनपुरी राजधानी के, निकट ही गंगा बहती है।
ये भूलों को ऋषि-मुनियों की, तपोभूमि की शिक्षा देती है ।।
शोर मचाती, धूम मचाती, गंगा जी वहाँ रमती हैं।
पाप-नाशिनी जग-तारिनी, अपनी मस्ती में बहती हैं।।
शेर बघेरे चीते रह-रहकर, किलोल करते हैं जहाँ।
कुन्दनपुरी के जंगलों में, गूँजती है उनकी दहाड़ वहाँ।।
उस तपोधरा पर जाने से, गंगा पापों को हरती है ।।
राजाओं के राज्य तपे थे, उस तपोभूमि के उपवन में।
ऋषि-मुनियों की घोर तपस्या, है भूमि के कण-कण में।
भीष्मक-राजा का राज्य तपा था, उस तपोवन की भूमि में।
शेर, बकरी, चीते पानी पीते, यहाँ एक घाट में।।
लोध् राजपूतों की, ये ही पुरातन बस्ती है ।
किले के ऊपर तोप रखी थी, आकाश में धुआँ उड़ता था।
दस फुट ऊंचा राजसिंहासन, भीष्मक राजा का चमकता था।।
हाथी घोड़े, फौज रिसाले, संगीनों का पहरा था।
रुक्मणी के पांचों भाइयों का, राम-लखन सा रहना था।।
भीष्मक राजा के धर्म-कर्म की, प्रकृति भी यश गाती है
उसी भूमि पर सीताजी ने, रुक्मणी का अवतार लिया था।
पिता भीष्मक राजा का, विश्व में ऊंचा नाम किया था।।
घोर तपस्या रुक्मणी कीन्हीं, इन्द्र-सिंहासन हिला दिया था।
रुक्मणी अवंतिका देवी, कृष्ण की विनती करती है।।
उसी भूमि पर कृष्ण जी ने, युद्ध किया था बड़ा भारी।
पूजा करती रुक्मणी की, अवंतिका ने प्रार्थना स्वीकारी।।
श्री कृष्ण के आगे, राजाओं का ताज झुका था।
रुक्मणी को हार, भीष्मक के यहाँ प्रकोप हुआ था।।
गंगा मैया जोश में आकर, भीष्मक-किले पर चढ़ती है।
भागीरथी गंगा जी ने, भीष्मक-किले पर हमले किये थे।
किले खजाने काट-काटकर, अपने गर्भ में समा लिये थे।।
ये दीन दशा देख देखकर, भीष्मक मन में हैरान हुए थे।
किले खजाने कटे देखकर, मन में अति परेशान हुए थे।।
हारकर भीष्मक-रानी, गंगा और गुरु से विनती करती है।
उस हारी हुई भूमि का नाम, सोचकर आहार धराया था।
तभी भीष्मक-पुत्र रुक्मी ने, भोजकट-दरावर नगर बसाया था।।
राजा रुक्मी ने भोजकट-दरावर में, एकछत्र राज्य किया था।
उसी भीष्मक-कुल में, ‘हेतराम’ ने जन्म लिया था।।
रमेशचन्द्रानन्द जी की मातृभूमि, सदा ही उनको जपती है।

-2-
कुन्दनपुरी भोजकट-दरावर, जहाँ राजाओं के राज्य हुए।
गंगाजी के आँचल में हैं, ये युगों-युगों से बसे हुए।
प्राचीन राजधानी थी, इस तपोभूमि के भाग्य बड़े।
राजाओं के राज्य छूट गये, टूटे उनके किले पड़े।।
तहसील परगना लगते थे, वहाँ होते न्याय धर्म बड़े।
हाथी-घोड़े, फौज-रिसाले, ऊंचे-ऊंचे दुर्ग खड़े।।
इसी धरा पर राजा-रानी व कितने सन्त महान हुए।
भीष्मक राजा अति निपुण, सती रानी प्रभावती थी।
धर्म-कर्म में रमते सदा, प्रेम भरी उनकी वाणी थी।।
यज्ञ-हवन अनुष्ठान करे थे, राजाओं में थे बड़े दानी।
जिनकी कीर्ति-गाथा ऋषि-मुनियों ने, जग में थी बखानी।।
हार भीष्मक रुक्मणी को, आहार नगर विख्यात हुए।
रुक्मणी, रुक्मैया, राजा रुक्मेश थे बलवान बड़े।
रुकमदत्त व रुकमवीर, रुक्मणी-रूमावती में प्रेम बड़े।।
सकर कोठी राजाओं की, सुनहरे खिर्नी के वृक्ष खड़े।
भाँति-भाँति के पुष्प सुहावने, रंग-बिरंगे वृक्ष खड़े।।
इसी भूमि पर यति-सती और महासिद्ध् अवतार हुए।
कुन्दनपुरी की अद्भुत शोभा, मुख से कही नहीं जाती है।
इसे देखकर स्वर्ग-लोक की, सुन्दरता भी लजाती है।।
ये ऋषि-मुनियों की भूमि है, प्रकृति ये बतलाती है।
इस पावन धरनी पर जाने से, आत्म-शान्ति मिल जाती है।।
इस भोजकट-दरावर भूमि पर, राजा ऋषि महान हुए।
है निकट इसी के अम्बकेश्वर, जहाँ भारी मेला लगता है।
फाल्गुन मास शिव-चैदस को, यहाँ लाखों काँवर का जल चढ़ता है।।
इसी के निकट अवंतिका देवी, जहाँ राम-नवमी का मेला लगता है।
उसी स्थल पर रुक्मणी देवी का, रुक्मणी-कुंड दमकता है।।
इसी भूमि पर सिद्ध् आश्रम, जो संसार में िवख्यात।
इसी भोजकट-दरावर नगरी में, बालक हेतराम का जन्म हुआ।
बाल-लीला दीखन लागी, जैसे कृष्ण का अवतार हुआ।
लगा चरावन गायों को, आैर ग्वालों का सरदार हुआ।
गंगा-तट पर विचरण करके, बीयावान में ज्ञान हुआ।
ऋषि-मुनियों की सेवा कर, हेतराम शमशान देख हैरान हुए।
हाथ में लकुटि गऊ चरावे, ग्वालों में किलोल करे थे।
नित्य गंगा स्नान पान कर, देवों में ध्यान धरे थे।
शीर्षासन लगा-लगाकर, तट पर उल्टे तपा करे थे।
वनखण्डों में छुप-छुपकर, योग-समाधि लीन रहे थे।।
पूर्वजन्म की घोर तपस्या के, उदयमान तूफान हुए ।
अवतार लिया था श्री कृष्ण ने, दैत्यवंश मिटाने को।
रूप बदलकर कृष्ण आये, कलयुग का भार हटाने को।।
गुरु भक्तों ने भजन बनाये, जग का भय मिटाने को।
रमेशचन्द्रानन्द अवतरित हुए, भटकों को राह दिखाने को।।
हमारी चरण-वन्दना गुरुदेव को, जो युग-युग में विख्यात हुए।

3-
एक बार की बात हुई, पावन गंगा ने आक्रोश किया।
गंगा-जल फेला सब आेर, किले पर भी रोष किया।।
प्रविष्ट हुआ जब जल नगर में, किले को उसने हिला दिया।
काट-काट कर किला खजाना, सब अपने में समा लिया।।
गंगा में जब द्रव्य कटे थे, झनन मनन वहाँ होती थी।
जनता खड़ी कौतुहल देखे, किसी में सामथय ना होती थी।
आधा नगर कटा था जल में, जनता बड़ी भयभीत हुई।
ऋषि-मुनियों ने की कृपा, तब पावन गंगा शान्त हुई।।
इसी भूमि पर भीष्मक ग्रहे, ज्येष्ठ-पुत्रा राजा रुक्मी ने जन्म लिया।
भीष्मक राजा ने सर्वस्व तजकर, राज्य ‘पुत्रा’ को सौंप दिया।।
राजा भीष्मक, रानी प्रभावती, गुरु चरण-रज में रमने लगे।
राजपाट को भूल गये, जब मन में भक्ति ध्रने लगे।।
दान-पुण्य अरु भजन-भक्ति में, सदा लीन वो रहते थे।
गुरुजनों और ऋषि-मुनियों की, सेवा में तत्पर रहते थे।।
रुक्मेश और रुक्मैया भाई, राज्य की सेवा करते थे।
फौज़-फर्रा की देख-रेख में, पूरी दृष्टि रखते थे।।
रुकमदत्त और रुकमवीर थे, महावीर बलवान बड़े।
बड़े-बड़े बलवानों के उन्होंने, क्षण में थे मान हरे।।
रुक्मणी व रूमावती, दोनों बहनें कहलाती थीं।
अवंतिका देवी के पूजन को, नित्य मन्दिर में जाती थीं।।
-4-
बड़े-बड़े महाबली, हो गए महिप भूप।
ग्रंथ, में जिनके, यश-प्रताप गाए हैं।।
प्रियवृत राजा, रथ चक्कर से समुद्र भये।
राजा प्रभु, दान गिरी, कंचन कराये हैं।।
राजा अमरीच-बैन, एकछत्र राज कियो।
सगर दिलीप के, सुयश नैन बिछाये हैं।।
हिरण्याकुश ऐसो भयो, हरि नाम को छुड़ाय दियो।
हिरण्याक्ष फिर पृथ्वी, चटाय कर लाये हैं।।
बाणासुर, सहड्डबाहु, बाली, जामवन्त बलि।
पवन-पुत्रा वीर जो, उखाड़ मेरु लाये हैं।।
परशुराम पंथ भीम, भीष्म सरीखे वीर।
बाणन के मार्ग, स्वर्ग को बनाये हैं।।
रावण राजा ऐसे, बीस-बाँह दस-शीश जाके।
वरुण कुबेर इन्द्र, काल जीत लाये हैं।।
राजा दुर्योध्न की, करत पखेरू छाँय।
ग्यारह अक्षोहणी दल, वुफरुक्षेत्रा में बिताये हैं।।
पर भूमि कहत रही, मैं ना भयी टस से मस।
मुझे संग ले ना गये, विश्व के महान वंश।।
मेरी-मेरी कहकर सब, मुझमें समाये हैं।
लोध्वंश, कश्यप-गोत्र, भोजकट-दरावर भूप।।
क्षत्राणी-वुफल पूर्वजों की, परम्परा के अनूठे रूप।
कहत योगी रमेशचन्द्रानन्द, ये योग-ग्रंथ में लिख दियो।
अमर गाथा भोजकट-दरावर की, वहीं अब छोड़ आये हैं।।
राजा भीष्मक के पाँच-पुत्र रुक्मी, रुक्मैया, रुक्मेश, रुकमदत्त व रुकमवीर थे तथा दो पुत्रियाँ रुक्मणी व रूमावती थीं। रुक्मणी परम-सुन्दर तथा धर्मिक प्रवृत्ति की थी। जब वह सयानी हुई तो एक दिन नारद जी कुन्दनपुरी आये। उन्होंने रुक्मणी का हाथ देखकर कहा कि पुत्री! तेरा विवाह तो द्वारकाधीश महाराज श्रीकृष्ण जी के साथ होगा। तदोपरान्त नारद जी ने द्वारकापुरी में जाकर यदुवंशी महाराज श्रीकृष्ण चन्द्र जी से भीष्मक-पुत्री रुक्मणी के सर्वगुण सम्पन्न की व्याख्या की। फलस्वरूप उनके हृदय में भी रुक्मणी के प्रति ‘प्रेम’ उत्पन्न हो गया। इधर कुछ याचकों ने भी राजा भीष्मक के पास कुन्दनपुरी में जाकर श्रीकृष्ण-चरित्र का यशोगान किया। अपनी अटारी पर बैठी रुक्मणी ने भी यह सब सुना। उसके हृदय में भी श्रीकृष्ण जी के प्रति अगाध्-प्रेम उत्पन्न हो गया। श्रीकृष्ण जी का यशोगान सुनकर रुक्मणी, श्रीकृष्ण जी के ध्यान में ऐसी डूब गई कि वह रात-दिन उन्हीं का स्मरण किया करती थी और देवी माँ अवन्तिका जी की आराधना करके यह वर माँगती थी कि श्रीकृष्ण जी ही मेरे पति हों। उधर राजा भीष्मक का बड़ा पुत्र ‘रुक्मी’ अपनी बहन रुक्मणी का विवाह, चन्देरी के राजा ‘शिशुपाल’ जो कि अत्यन्त बलवान था उसके साथ करना चाहता था। भीष्मक का छोटा पुत्र रुक्मेश इस विवाह को श्रीकृष्ण जी के साथ करना चाहता था। अन्त में युवराज रुक्मी के आग्रहनुसार, रुक्मणी का विवाह शिशुपाल के साथ होना निश्चित हो गया। यह सुनकर रुक्मणी व्याकुल हो गयी। इसका पता जब श्रीकृष्ण जी को चला, तुरन्त उन्होंने अपने दारुक-सारथी द्वारा रथ मंगवाया और कुन्दनपुरी के लिये प्रस्थान कर दिया। पीछे-पीछे बलराम जी भी अपनी सेना सहित चले आये। इधर मगध्-नरेश जरासन्ध् व शिशुपाल भी अपने पचास हजार शूरवीर सैनिकों को लेकर वहाँ पहुंच गये। जब इन्हें श्रीकृष्ण जी व बलराम जी की उपस्थिति का वहाँ पता चला तो इनके होश-हवाश उड़ गये। घमासान युद्ध हुआ। जरासन्ध् व शिशुपाल के ‘शूरवीर’ मुंह ताकते रह गये और श्रीकृष्ण जी उन सबके बीच में से रुक्मणी को इस प्रकार ले गये जैसे सिंह, गीदड़ों के झुँड में निर्भयता-पूर्वक घुसकर, अपना शिकार उठाकर ले जाता है। देखते ही देखते श्रीकृष्ण जी का रथ दूर निकल गया। सभी योद्धागण सावधन होकर उनके पीछे दौड़े। उस समय रुक्मणी को घबराई हुई देखकर श्रीकृष्ण जी ने कहा- ‘‘हे रुक्मणी! तू चिन्तित मत हो। मैं द्वारकापुरी पहुँचकर तेरे साथ शास्त्रानुसार विवाह करूंगा। मैं कोई अनर्थ नहीं कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा ‘हरण’ नहीं कर रहा। मैंने तो अपने एक ‘भक्त की पुकार सुनी है। जब भी मुझे मेरा कोई भी ‘भक्त’ सच्चे मन से याद करता है तो मुझे उसकी भक्ति के वशीभूत होकर उसकी सहायता के लिए आना ही पड़ता है। अपने सच्चे-भक्त की पुकार सुनना ही मेरा परम कर्तव्य है।’’ इतना कहकर श्रीकृष्ण जी ने अपने गले की माला उतारकर, रुक्मणी को पहना दी। इधर श्रीकृष्ण जी ने रुक्मी व उसकी सेना को और उधर बलराम जी ने जरासन्ध् व शिशुपाल तथा उनकी समस्त सेना को तहस-नहस कर दिया।इस हार के बाद राजा भीष्मक के बड़े पुत्र युवराज रुक्मी को इतना दुःख हुआ कि उसने अपनी राजधानी कुन्दनपुरी को सदैव के लिए त्यागने का प्रण कर लिया। उधर पावन-गंगा माँ ने भी आक्रोश किया और कुन्दनपुरीको काट-काटकर अपने प्रवाह में सजल करना आरम्भ कर दिया। अतः राजधनी के नये स्थान की खोज शुरू की गयी। राजा रुक्मी ने कुन्दनपुरी के समीप ही एक ऊंचा, पुराना व अत्यन्त रमणीक ‘टीला’ देखा। इस टीले की शोभा देखते ही बनती थी। यहाँ मनमोहक फूल-फल व प्रकृति का बसेरा था। ऐसा लगता था कि प्रकृति ने अपना सर्वस्व यहाँ पर संजोकर रखा है। राजा इस स्थल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी राजधानी यहाँ स्थानान्तरित कर दी। आगे चलकर इसी स्थान का नाम ‘भोजकट दरावर’ पड़ा। इसी पावन-भूमि पर कालान्तर में स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज, देवी-माँ ‘सोमती’ की भुवन-कोख से बालक ‘हेतराम’ के रूप में अवतरित हुए।

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