Thursday, April 9, 2009

योगियों का दावा

पृथ्वी इसकी साक्षी है कि आदिकाल से ही योगी, सन्त व साधक गणों का, मानव-जीवन के उत्थान में सदैव विशेष स्थान रहा है। आज के घोर भौतिकवाद अथवा कहिए अनैतिकवाद में इनकी महत्ता और भी बढ़ गयी है। ‘चमत्कार को ही नमस्कार है’। योगियों का दावा है कि ‘योगाभ्यास’ द्वारा शरीर को इतना हल्का-फुल्का किया जा सकता है कि आकाश में उड़ता हुआ मनुष्य पल-भर में इच्छानुसार कहीं भी जा सकता है। योगीजन ऐसे-ऐसे जादू के मरहम जानते हैं जिनको पैर के तलुवों पर लगाते ही मनुष्य अल्प-समय में ही पृथ्वी के किसी भी भाग में सरलता पूर्वक गमन कर सकता है। खेचरी-मुद्रा के अभ्यास द्वारा जिसमें जिह्ना को बढ़ाकर नासिका-छिद्रां के मूल में उल्टा करके लगाया जाता है, ‘योगी’ हवा में उड़ सकता है। मुख में पारद-योग के गुटके को रखकर, पलक झपकते ही योगी कहीं भी पहुँच सकता है। योगियों का दावा है कि वे ‘ध्यान द्वारा, दूर से दूर संसार के किसी भी स्थान का हाल बता सकते हैं अथवा कुछ ही क्षणों में ‘मन’ को उस स्थान पर भेजकर वहाँ की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। योगियों का दावा रहा है कि पृथ्वी के मानव तो क्या, अदृशय-आकाशवासी, देवी, देवताओं और ईश्वर तक के वे शब्द सुन सकते हैं। उनका दावा है कि वे कठिन से कठिन रोग की भी दृष्टि, स्पर्श अथवा मंत्रोच्चारण द्वारा निदान कर सकते हैं। रोगी का तो कहना क्या, वह मुर्दे तक को भी जीवित कर सकते हैं। ये हम सत्य-वाक्य कहते हैं। यह कोई अतिश्योत्ति नहीं है। ये ही सत्य है। सत्य ही योगियों का कवच है। यह सर्व-विदित है कि वर्तमान युग के बहुत समय पूर्व ही, योगीगण समझ चुके थे कि इस ‘जीवन’ में आध्यात्म-विद्या का ज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। उनको ज्ञान हो गया था कि इस विद्या द्वारा, इस भौतिक संसार में पल-भर में असम्भव को भी सम्भव कर देना असाध्य-कार्य नहीं है। आज भी भारतीय-जीवन में यह प्रवृत्ति ‘सर्वोपरि’ है। इसलिये कोई आश्चर्य नहीं कि आज लोग अपनी बहुत सी कठिनाइयों में वैज्ञानिकों व चिकित्सकों को भुलाकर साधु-सन्यासियों के पीछे ही अधिक दौड़ते हैं और लाभान्वित होते हैं। कभी-कभी साधुओं की चमत्कार-पूरण शाक्तियों की गाथाएँ सुनने को मिलती हैं कि अमुक साधु ने असाध्य-रोगों को, जिन पर किसी की भी औषधि काम नहीं करती थी, अच्छा कर दिया। आज भी भारतवर्ष के प्राकृतिक प्रांगण में तथा पहाड़ों और कन्दराओं में ऐसे अनेक ‘योगी’ विचरण करते हैं जिन्होंने वर्षों से ‘मन’ को एकाग्र करके भिन्न-भिन्न योग-सिदृध्याँ प्राप्त कर रखी हैं और अपने योगबल से ब्रह्मलीन होकर परम-आनन्द में वास करते हैं। बात केवल उनके दर्शन और मात्रा ‘कृपा’ होने की है, जो केवल आत्मिक-बल, आस्था, गुरु-कृपा, प्रारब्ध एवम् ईश-कृपा पर ही निर्भर करती है। हमारा परम-सौभाग्य कहिए अथवा परमेश्वर की महान-कृपा कि हम अ¯कचन को ऐसी दिव्य तथा महान विभूति के पावन चरणों में बैठने का पुनीत अवसर प्राप्त हुआ है जिनके संसर्ग एवं सानिध्य से हमारा निराश-भाव समाप्त हुआ। जिनके ज्ञान-स्पर्श एवं अमर-अनुराग ने हमारा जीवन दर्शन एवं हमारी जीवन धारा ही बदल दी। जिनकी असीम कृपा के चमत्कार-पूर्ण प्रभाव से हमारा यह तुच्छ-जीवन अमोल, सफल और सार्थक लगने लगा और अन्त में जिनकी चरण-रज के योगमय स्पर्श से हमारे तन-स्तर पर सुख, मन-स्तर पर शान्ति तथा आत्मा-स्तर पर आनन्द की अमर अनुभूति प्रज्वलित हुईं। ऐसी महान् आत्मा ‘श्री सदगुरू रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज वनखंडी’ के हम जन्म-जन्मान्तर ऋण्ी रहेंगे। उनके चरण-कमलों की धूलि, हमें अपने मस्तक पर चढ़ाने को मिली है। हमारा कितना परम सौभाग्य है। इसका वर्णन करना हमारी लेखनी की सामथ्र्य से परे की बात है।

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