Thursday, April 9, 2009

विनय

तन हमारा मन्दिर का धोखा, मन हमारा माया का धाम।
भटक रही है आत्मा हमारी, याचना सुन लो कृपा निधान।।
मन्दिर मस्ज़िद अरु गुरुद्वारे हैं, सबको शत्-शत् हमारा प्रणाम।
चारों धाम का तीर्थ करके, अन्त में आया गुरु का ध्यान।।
बचपन, यौवन व्यर्थ गँवाकर, आये हैं बन बूढ़े द्वारे।
शक्ति हमारी शिथिल हुई अब, पकड़ लिये हैं चरण तुम्हारे।।
हम चूर रहे अहं के मद में, भक्ति में हमें मिटना सिखा दो।
असल नहीं ये खोटा सिक्का, पारस बनना इसे सिखा दो।।
हम अकिंचन हैं अज्ञानी, और अविवेकी हैं अभिमानी।
भक्त जनन के तुम हो स्वामी, अगम अगोचर अन्तर्यामी।।
सबको देकर दान दया का, भव से तुमने पार उतारा।
पुण्य-पाप का भेद मिटाकर, आगे बढ़कर दिया सहारा।।
सुनके हमारी विनती याचना, भक्ति का उत्कर्ष दिखा दो।
फंसे हुए अज्ञान तिमिर में, आत्म-ज्ञान की राह दिखा दो।।
हों अनुभवी गुरु हमारे सुन्दर, तुम शिव की अभिव्यत्ति करा दो।
सरस्वती की अतुल सम्पदा, हमको भी कुछ दान करा दो।।
गुरु जीवन गुणगान करें हम, ऐसे यश आकर सुझवा दो।
वाणी हमारी शिव-सुन्दर हो, शैली का शृँगार करा दो।।
बुदधि हमारी हो जाये स्थिर, हृदय को सम सूर्य बना दो।
आत्मा हमारी होवे उज्ज्वल, ऐसा तुम प्रकाश दिखा दो।।
हम उथली बरसाती नदियाँ, सागर से हमको मिलवा दो।
हर्ष, विषाद अरु हानि-लाभ में, सम रहना हमको सिखला दो।।
औरों का पथ करें आलोकित, ऐसा दीपक हमको बना दो।
‘आत्मा-लौ’ अविराम जले बस, ऐसी भत्ति सुधा पिला दो।।
नित्य हो भक्ति नूतन हमारी, हे गुरु ऐसा मंत्र बता दो।
गुरु! चरण-रज अपनी देकर, आत्मा का शृँगार कर दो।।

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