Monday, April 6, 2009

अर्ध्य


परम पिता परमेश्वर यशोदानन्दन द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि _
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्,
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।
अर्थात् जब-जब भी भारतवर्ष में धर्म का लोप व अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मुझे सत्पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए तथा धर्म की स्थापना करने के लिए, अपने रूप को रचना पड़ता है अर्थात् अवतार लेकर विश्व-कल्याण हेतु भारत-भूमि पर अवतरित होना पड़ता है।
परम पिता परमेश्वर ने इसी परम्परा के अन्तर्गत भोजकट दरावर, जिला बुलन्दशहर, राजपूत-लोधवंश, बड़-गूजर गोत्र में रघुकुल तिलक श्री राजाराम जी के घर, माँ सोमती की भुवन-कोख से एक अलौकिक शक्ति का सृजन किया, जिसने माँ के आँगन को सभी प्राकृतिक-सौन्दर्य व दैविक-शक्तियों से ओत-प्रोत कर दिया। बचपन में बालक का नाम ‘हेतराम’ रखा गया। अन्य अवतारों की तरह इस शिशु को भी जन्मजात-सिद्धि प्राप्त थी। अतः बाल्यावस्था में ही इसने गृह-त्याग किया। वनखंडों में नंगे पैर अर्धनग्नावस्था में घूमना, गउएँ चराना, तपस्या करना, कभी निराहारी, कभी दूधाहारी, कभी फलाहारी तो कभी केवल पेड़ों के पत्ते पीस-पीसकर खाना, इस प्रकार इसने अपना जीवन-यापन किया। भारी तपस्या, त्याग, वैराग्य, मौन-व्रत, चिन्तन-मनन तथा अखंड योग-साधना में रमने वाले, इस कालगुँजार बालक का नाम आगे चलकर, गुरु-आज्ञानुसार ‘स्वामी रमेशचन्द्रानन्द जी महाराज वनखंडी’ पड़ा।
हमने बड़े-बड़े ऋषियों, महात्माओं व मुनि-विद्वानों से, जो कि प्रायः भारतवर्ष का भ्रमण करते रहते हैं, स्वामी जी के बारे में ये कहते हुए सुना है कि मां भागीरथी पावन-गंगा जहाँ से अवतरित हुई हैं और जहाँ जाकर विसर्जित हुई हैं, उसके बीच में गंगा-किनारे इतना उंचा अन्य कोई ‘योगी’ विद्यमान नहीं है, जो आज भी विश्व की चकाचैंध से परे समस्त मौलिक, भौतिक व लोलुप-संपदाओं का त्याग करके ग्राम भैंसोड़ा-चाँदनेर, जिला बुलन्दशहर के भूड़-रेतों भरे जंगलों में अपनी अनवरत ‘तपस्या’ में ध्यानस्थ है। जिसके जप-तप की पताका आज भी क्षितिज में लहराती है।
गुरुदेव के कथनानुसार पुरुषार्थी जन्म में नहीं अपितु ‘कर्म’ में विश्वास रखते हैं। हमें जन्म-भोगी नहीं अपितु कर्म-भोगी होना चाहिए। कर्म और ज्ञान, इस मानव-रूपी सिक्के की दो सतह हैं। जिस प्रकार हंस अपने दो पंखों की सहायता से ही उड़ सकता है उसी प्रकार प्रत्येक मानव को अपना जीवन ‘सार्थक’ बनाने के लिये मृत्युपर्यन्त कर्म और ज्ञान में आरूढ़ रहना चाहिए। पूर्व जन्मों के संचित ‘सत्कर्मों’ से ही मानव-जीवन मिलता है। इसका अधिकाधिक सदुपयोग करना हमारा धर्म है। मानव-जीवन प्राप्त करने के लिए देवलोक के देवगण भी अभिलाषा रखते हैं। इसे हमें निरर्थक नहीं व्यतीत करना है। शुभ आचार-विचार रखो। जप-तप, दान, त्याग-वैराग्य सदैव अपनी सामर्थ्यानुसार करते रहो। कोई भी ‘कर्म’ शुरू करो तो तब तक करते रहो, जब तक उसका अन्त ना हो जाये अन्यथा वह तुम्हारा ही अन्त कर देगा। भोग में नहीं, योग में विश्वास करो। चिन्ता नहीं, चिन्तन करो। मनोकामनाएँ नहीं, मनन करो।
सभी प्राणियों में ‘ईश्वर’ एक ही रूप में शाश्वत है। सभी ईश्वर की एक चिंगारी-मात्रा हैं, पिफर भेदभाव कैसा और किसलिए? सदैव सुसभ्य एवं सुसंस्कृत रहिए।
विद्यालय विद्या नहीं अर्थात् ये जरूरी नहीं कि वहाँ विद्याध्ययन करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी प्रकांड-पंडित हो जाये। मन्दिर-मस्षिद भगवान नहीं अर्थात् जरूरी नहीं कि वहाँ जाने वाला प्रत्येक ‘प्राणी’ ईश् भक्ति में लीन हो जाये। ये सभी तो कर्म और प्रारब्ध के धरोहर हैं। ईश्वर, ज्ञान और कर्म को कहीं भी प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है तो केवल दृढ़-प्रतिज्ञा, दृढ़-संकल्प, उत्कंठा तथा परम् में अटूट-आस्था की। जीवन में सदैव गरिमा व शिथिलता का त्याग करो।
वो प्राणी विरले व अत्यन्त भाग्यशाली होते हैं जिन्हें अपने जीवन-काल में किसी योगी-सद गुरुदेव की छत्राछाया प्राप्त हो जाती है जिससे उन्हें इस मृत्युलोक-रूपी लख-चैरासी ‘भवसागर’ से पार उतरने में क्षण-मात्रा भी नहीं लगता। लेकिन ये भी सत्कर्मों व भाग्य से ही मिलता है। हमने तो स्वयं कई बार देखा है कि भाग्यशाली व्यक्ति जो कि ईश्वर की अभेद्य-माया को समझते हैं, वो ही ‘गुरुदेव’ के दर्शन कर पाते हैं। गुरुदेव के इर्द-गिर्द किसी दुराचारी, अत्याचारी, व्यभिचारी या समकक्ष मनुष्य की ताकत ही नहीं होती कि वो उनकी कुटी तक पहुँच जाये। ये ‘गुरुदेव’ की ही लीला है जो प्रत्यक्षदर्शियों की मानव-अभिव्यत्तिफ से परे की गाथा है। तभी तो कहा है कि_
स्त्री चरित्रम्, पुरुषस्य भागम्,
देवो न जानो, कोतू मनुस्यते।
‘ईश्वर’ सर्वत्रा विद्यमान है। कण-कण में उसका बसेरा है। मानव-जीवन में कुछ भी घटित होता है, वह विधि के विधान अनुसार ही होता है। हम इसे भी समझ नहीं पाते। हमारे जीवन में यदि कुछ अच्छा काम होता है तो उसका ‘श्रेय’ हम अपने को दे देते हैं कि यह तो हमारे परिश्रम का प्रसाद है और यदि कोई अप्रिय घटना घटती है तो कह देते हैं कि भाई - ‘‘जैसी प्रभु की इच्छा होगी, वैसा ही तो होगा।’’ कैसी विडम्बना है? ये सब कुछ साक्षात देखते हुए भी कितने सहनशील, सहिष्णु व दयालु हैं प्रभु? ये प्रभु की महानता की पराकाष्ठा है। यदि हम अपने जीवन में प्रभु के इस उपदेश को अपना लें कि ‘‘कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है, फल परमात्मा की इच्छा’’, तो इससे हमारे जीवन में चिन्ताओं की एक गूढ़-गुत्थी स्वयमेव सुलझ जायेगी। लेकिन इसके लिए विश्वास व दृढ़-संकल्प की परम आवश्यकता है।
गुरुदेव का यह ‘योग-ग्रंथ’ उनके अनन्त-उपदेशों, ओजस्वी-विचारों व तेजस्वी-जीवन के प्रायोगिक-अनुभवों व प्रेरणाओं का मात्रा सूक्ष्म-संकलन है। जीवन को सार्थक बनाने वाले प्राणियों के लिए, ये एक अमृत-कलश है।
स्वामी जी के कथन व उपदेश, समुद्र की उन लहरों के समान हैं जो पृथ्वी पर प्रवाहित होते हुए भी सदैव क्षितिज को स्पर्श करते रहते हैं। इसमें कोई संशय या असमंजस नहीं कि मनुष्यों की आकाँक्षाओं का अन्त, सर्वदा योगियों की चरण-धूलि में ही निहित होता है। ऐसे पुरुषों के लिए यह ‘ग्रंथ’ एक अमूल्य धरोहर है।
स्वामी जी का यह ‘योग-ग्रंथ’ उनके परम-प्रताप से, उन्हीं के तत्वाधान में सृजित किया गया है। अनुवादकों व शिष्यों का इसमें तनिक भी योगदान नहीं। स्वामी जी की वाणी का अनुवाद करने वाली तो कोई अदृश्य-शक्ति है। हमारी भूमिका तो केवल एक आज्ञाकारी-सेवक व अनुवादक-मात्रा है। ‘ग्रंथ’ सृजन करते समय, हमें तो कुछ ऐसी अनुभूति रही कि किसी अदृश्य-शक्ति के आदेशानुसार हमारी लेखनी चलती रही और जब ‘स्याही’ समाप्त हुई तो लेख ‘महायोग-ग्रंथ’ का रूप धारण कर चुका था।
निम्न-पद्यांश द्वारा पाठकों के सम्मुख हम गुरुदेव तथा अपनी मनोस्थिति को विस्तार में चित्रित कर रहे हैं_
गुरु ज्ञान का अनुवाद, कैसे भला हम कर सकें,
गुरुदेव तो सर्वज्ञ हैं, मनन हम कैसे कर सकें।
जन्मजात सिद्धि साथ है, पुनः कथन कैसे कर सकें,
गुरु ज्ञान अथाह सागर है, हम उजागर कैसे कर सकें।
बचपन से ही वनोवास है, ऋषि-मुनियों का संग साथ है,
गंगा तीरे गऊएँ चराते, मन भत्तिफ प्रसंग का वास है।
हम लिखते-लिखते लिख रहे, बुद्धि से परे की बात है,
आँखों से अश्रु बह रहे, अरु हाथ भी कंपात है।
प्रेमचन्द शर्मा कह रहे, ब्रजनन्दन लाल भी साथ है,
गुरुदेव की अनुकम्पा हो रही, ग्रंथ स्वतः लिखत जात है।
लो वर्षा ऋतु भी आ गयी, गरज बादल में पड़ने लगी,
वर्षा घनेरी के आंगन में, सीरी समीर बहने लगी।
पृथ्वी जल अथाह बहे, लहरें उमड़ती थीं भयावनी,
जब तूफानी जल वेग से बहता, बनती थीं भँवरें लुभावनी।
शरद ऋतु का फिर आया वासा, जल हिमखंड सा बन गया,
ओलावृष्टि पाला पड़े था, सुहावना शीतल मौसम बन गया।
स्नान करें तो कम्पन आती, फिर जमकर योग कैसे करें,
गुरु-वाक्य घोर तपस्या को, भला हम कैसे तज सकें।
हो मृत्यु का भी सामना, विरले ही योग कर सकें,
पांच वर्ष तक गुरु-वाक्य पर, माँ सोमती ही चल सकें।
सर्दी गर्मी वर्षा सही, वीरान वन में रह गयी थी,
योगी-सुत के सृजन हेतु, कष्ट करोड़ों सह गयी थी।
बड़े भाग्य उन मात-पिता के, योगी-सुत जो जनते हैं,
जन्मदात्री मातृभूमि को, विश्व में विख्यात कर जाते हैं।
वनखण्ड घोर संकटों में, हर कोई ना तपस्या कर सके,
गुरु-वाक्य में ही शक्ति यह, सिंह बघेरा भी साथ रह सके।
हमको न कोई भय यहाँ, गुरु-वाक्य पर निर्भय रहें,
गुरु-आज्ञा पर जो जम गया, मुक्ति उसके अधीन रहें।
कहें प्रेमचन्द शर्मा, योग बिना मुत्तिफ नहीं है,
मानते ब्रजनन्दन लाल भी, भक्ति बिना शक्ति नहीं है।
मर जायें पीछे ना हटें, गुरु आज्ञा जो हैं धारते,
साक्षात ईश्वर से करें, ये राज गुरु-भक्ति जानते।
धर्म कर्म नीति जो गुरुवर कहें, हटना उनसे पीछे नहीं है,
भवसागर गुरुदेव ने सुखा दिया, अब तरने की जरूरत नहीं है।
कहना सरल, करना कठिन, गुरु-आज्ञा चित्त में समा ली,
गुरु-वाणी के अनुवाद से हमने, इस आवागमन मुक्ति पा ली।
ग्रीष्म-ऋतु अब आ गयी, वसुन्धरा भी तपने लगी है,
लूओं के तपते झोकों से, देह सबकी झुलसने लगी है।
योगी का योग न डगमगाता, तपस्वी तपस्या करते बड़ी भारी,
तेजस्वी का तेज बढ़ जाता, ‘आत्मा’ ज्ञान से चमके न्यारी।
ग्रीष्म-ताप का सुख तो भोगो, पाप-कीटाणु होते धराशायी,
पसीना बहता झर-झर देह से, गुरु-भक्ति विरलों ने पायी।
योगी की योग क्रियाओं का, आज तक पता किसको लगा,
भूड़ों की तपती रेती में, गुरुदेव का शीर्षासन लगा।
भरी दोपहरी में जब सोती दुनिया, गुरुदेव तब जप-तप करे थे,
योग कलाओं को साधकर स्वामी, समस्त रात्रि जागरण करे थे।
गुरु-ज्ञान गरिमा गागर से, गाँभीर्य भी गद्गद हो गया,
संसार सागर का सर्वस्व सार, सुहृदय में सरसित हो गया।
सत्मर्यादा पर जो भी चला रघुकुल को विख्यात कर गया,
गुरु-ज्ञान का डंका बजाकर, विश्व का मोचन कर गया।
यों तो दुनिया में बहुतेरे, साधु-सन्त पाये जाते हैं,
गुरु-वाणी है पत्थर की लकीर, विरले ही इसे निभाते हैं।
बारम्बार वन्दनीय हैं गुरुदेव, जो सद्ज्ञान बहाये जाते हैं,
ब्रह्मज्ञान गंगा सरिता में, भक्तों को डुबकी लगवाये जाते हैं।
माँ सोमती की पावन कोख से, ऐसे ही महापुरुष आये थे,
जब अवतार हुआ था पृथ्वी पर, सारे प्राणी हर्षाये थे।
सुत जन्म ने मात-पिता को, अति उमंग हर्षोल्लास दिया,
योगी-सुत की अनोखी क्रीड़ाएँ, खुशहाली से घर भर दिया।
जब बड़े हुए तो होश हुआ, कुछ खोये-खोये रहते थे,
प्रभु दर्शन मुझको होंगे कहाँ, इस धुन में तल्लीन रहते थे।
गऊएँ चराते गंगा-किनारे, भजन वृक्ष-कुन्जों में जमा डाला,
जब पूर्व-जन्मों की तपस्या जागी, घर-बार नगर सब तज डाला।
फिर चले गुरु-योगेश खोजन को, गुरुज्ञान से भवसागर तरना है,
जब मिल जायें गुरु फिर लौटे कौन, क्या बचा जग में जो करना है।
अहोभाग्य हमारा गुरुदेव, हमें सेवा का अवसर दे रहे,
गुरुदेव असीम अनुकम्पा से, हम गुरु-वाणी का अनुवाद कर रहे।
अनुवादक
प्रेमचन्द शर्मा
ब्रजनन्दन लाल
बैंक अधिकारी

3 comments:

  1. ज्ञानवर्धक पोस्ट. पढ़कर अच्छा लगा. शुक्रिया.
    जारी रहें.
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  2. सुंदर अति सुंदर लिखते रहिये .......
    आपकी अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा
    htt:\\ paharibaba.blogspost.comm

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  3. उजाले को पी अपने को उर्जावान बना
    भटके लोगो को सही रास्ता दीखा
    उदास होकर तुझे जिंदगी को नही जीना
    खुला गगन सबके लिए है , कभी मायूश न होना
    तुम अच्छे हो, खुदा की इस बात को सदा याद रखना....
    .......शुभकामनायें.

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