Friday, April 17, 2009

पुष्पांजलि

1. हम अकेले हैं क्योंकि दूसरों को हम स्वीकार करते ही कहाँ हैं।
2. बूँद जब अपने को ही बूँद जानकर समुद्र को समर्पित होती है तो उसी क्षण वह स्वयं समुद्र-स्वरूप हो जाती है।
3. हम अंश हैं इसीलिए तो हमारा धर्म है कि हम पूर्ण बनें।
4. अंश-अंश देते रहने से अंश कभी भी पूर्णतः समाप्त नहीं होता और वह कभी पूर्ण भी नहीं हो पाता। अतः साहस करके सर्वस्व ही समर्पित कर दो। सर्वस्व ही पा जाओगे।
5. यहाँ कुछ देकर ही कुछ पाया जाता है। वहाँ सब कुछ देकर ही सभी कुछ पा लिया जाता।
6. वासनाओं के त्यागने पर ही उपासना ; परम के पास बैठनाद्ध सम्भव है।
7. गुरु के द्वार पर खड़े होकर अपनी कोई शर्त मत लगाओ अन्यथा अन्दर प्रवेश नहीं कर पाओगे।
8. गुरु को क्या करना है तथा क्या नहीं करना है, यह भत्त का विषय नहीं है। भत्त का विषय तो केवल गुरु-आज्ञा का पालन करना है।
9. गुरु, शत्ति-सामथ्यर्य का ऐसा असीम तथा अथाह सागर होता है जिसमें से आस्थावान-भत्त, प्रेम-डुबकी लगाकर अनमोल से अनमोल ज्ञान रूपी मोती को प्राप्त कर सकता है।
10. आत्म-ज्ञानी-गुरु के समक्ष प्रत्येक भत्त तथा शिष्य, पूर्णतः नग्न होता है। उनके सम्मुख आडम्बर करके अपने को ढ़कने अथवा सँवारने की आवश्यकता नहीं। जैसे हो, जिस अवस्था में हो, वैसे ही पूर्णतः समर्पित हो जाओ। अन्दर तक निखर जाओगे।
11. जिस प्रकार भगवान ने अपनी सृजन-शत्तियों को स्वाधीनता दी है, उसी प्रकार मनुष्य को भी पूरी स्वाधीनता दी गई है। वह चाहे तो अमृत का पुत्र हो सकता है और चाहे तो असुर का साथी। प्रत्येक क्षण यह चुनाव हमारे समक्ष आता रहता है। और हम बिना बुिद्ध् का प्रयोग करे ही चुनाव करते रहते हैं।
12. जो व्यत्ति प्राणिक-सत्ता तथा मानसिक-सत्ता से ऊपर उठकर दिव्य-सत्ता अर्थात् सर्वोत्तम शुद्ध् भगवत्-सत्ता से नाता जोड़ लेता है उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता।
13. हम प्रेम करते हैं लेकिन अपने आपस से, अपनी विकृतियों और निर्बलताओं से नहीं। संयोग से यदि जीव-मात्रा से प्रेम किया होता तो दिव्य-प्रकाश की परिधि में स्थित तीर्थाटन का ‘पुण्य’ प्राप्त हो जाता।
14. हम पल-पल छोटे बनते जा रहे हैं क्योंकि अज्ञानवश हम निरन्तर बड़े होने का दावा करते रहे हैं। अरे! तनिक ‘लघु’ बनकर तो देखो, संसार स्वयं सिद्ध् कर देगा कि आप ही महान् हैं।
15. हम स्वयं एक विशाल दिव्य-द्वीप हैं परन्तु ज्ञान रूपी दीपक के अभाव में हम आलस्य से ग्रसित होकर अंधकार में भटक रहे हैं।
16. शरीर के होम में, मन की आहुति के उपरान्त ही ‘आत्मा’ आनन्द अमृत-पान का आचमन करती है।
17. यदि आत्म-मन्दिर के द्वार पर अतिथि आवाहन के हेतु आप स्वयं निर्भय होकर बैठे हैं तो निश्चय ही आपके प्रथम और अन्तिम के अतिथि स्वयं ‘ब्रह्मदेव’ होंगे।
18. याद रखो! गुरु कभी भी आपके धन, वैभव अथवा मिथ्या-परिवेश से प्रसन्न नहीं होते। गुरु-कृपा की प्राप्ति के लिए अटूट-आस्था, निष्ठा एवम् भत्ति ही सक्षम और सुगम मार्ग है।
19. जब मानव अपने को अक्षम और नगण्य मानकर अपना समर्पित भाल, गुरु-चरणों में नतमस्तक करता है तो अनायास ही उसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
20. आप तो धन्य हैं जिनके गुरु एक ‘योगी’ हैं, एक दिव्य-पुरुष हैं, तप और त्याग ही जिनका धन-वैभव है। अवसर ‘श्रेष्ठ’ है। कुछ अमूल्य पाना चाहते हो तो प्रयास करो। अवश्य मिल जायेगा। सफलता की चरम-सीमा तुम्हारे कदम चूमेगी।

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